![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhIbBKCfirwF7FkvXp0Kj1yqO2DHjnJu7KBy6iPw7ma2bgE1-IiQLqL4EXKsPkx_XXL0GGYLVSsCSvBswL-OfQoHjXmLQ09Q95DJAb8j-S7eAtaLvb5SJLhPQJUnQqiiHenVc12Fq6L2SI/s200/1402475516lgq4.jpg)
बेरंग सा
फिरता था आहों की गलियों में
बस तंग सा !
हो आता था शायद
तुम तक
और जाता था
इस कदर थक
कि मिलता नहीं था मुझको
हो जाता था कहीं गुम सा !
ढूढंता था फिर उसको
तुम्हारे ठिकाने तक
खुद को खोने तक
उसको पाने तक
चमकता था फिर जाकर कहीं
वो नम सा !
मैं तोड़ता था
कितने ही धागे
उसकी डोर तक
और इंतज़ार करता था
फिर एक भोर तक
मालूम चलता था
वो हो आया है
चाँद के छोर तक
बेगानी पतंग सा !
मैं खुद को भी कहीं भी
रख देता था उसकी भूल में
फिर नज़र आता था
किसी अनजानी गर्द में
किसी अजनबी की धुल में
लग गया था वो मेरे अक्स में
एक जंग सा !