Wednesday, December 22, 2010

पुर्जा!


एक याद का पुर्जा था
बेरंग सा
फिरता था आहों की गलियों में
बस तंग सा !
हो आता था शायद
तुम तक
और जाता था
इस कदर थक
कि मिलता नहीं था मुझको
हो जाता था कहीं गुम सा !
ढूढंता था फिर उसको
तुम्हारे ठिकाने तक
खुद को खोने तक
उसको पाने तक
चमकता था फिर जाकर कहीं
वो नम सा !
मैं तोड़ता था
कितने ही धागे
उसकी डोर तक
और इंतज़ार करता था
फिर एक भोर तक
मालूम चलता था
वो हो आया है
चाँद के छोर तक
बेगानी पतंग सा !
मैं खुद को भी कहीं भी
रख देता था उसकी भूल में
फिर नज़र आता था
किसी अनजानी गर्द में
किसी अजनबी की धुल में
लग गया था वो मेरे अक्स में
एक जंग सा !

Thursday, November 18, 2010

एक कोस


वो रोज एक कोस चलना
और फिर थक जाना
वो ढूंढना उम्र भर खुद को
भूल में कहीं जिंदगी रख जाना !
वो ख़ामोशी की ठंडक
ज़ज्बातों का सिहरना
कहीं बातों की गर्मी में
मन की आंच तक जाना !
वो तरसना किसी को
यूँ ही पाने के लिये
और ऐसे ही खुद के खोने से
यूँ ही छक जाना !
बड़ी गीली सी मिट्टी है
सोच शायद फिसल जाये
मुमकिन है तकलीफ दे
दिल का कुछ भी बक जाना !
चाँद की सेक से
कोना कोई गरम न होगा
मुट्ठी भर धूप में
हो सके तो पक जाना !

Monday, November 1, 2010

रचना!


वो रोज रोज की बातें
वो ख़ामोशी को खुरचना !
वो खुद का अच्छा न लगना
वो आईने को जंचना !
न जाने कैसी उलझन है
कुछ ख्वाहिशों में अनबन है
मुश्किल ही लगता है अब तो
खुद से ही जैसे बचना !
लिखने जो आज बैठा हूँ
वो सब जो न कभी कहता हूँ
जायज सा लग रहा है मुझे
लफ़्ज़ों का शोर मचना !
कुछ पर तो रंग फैले हैं
और कुछ अभी भी मैले है
इस सोच से तो नामुकिन सा है
एक 'जिंदगी' को रचना !

Tuesday, October 26, 2010

तुम!


नींद की हथेली पर
एक ख्वाब रख गए थे तुम
या कि मेरी उम्र का
हिसाब रख गए थे तुम!
यूँ भी कुछ नमकीन था
तेरा अनकहा आफरीन था
ख़ामोशी की आह पर
एक किताब लिख गए थे तुम!
हरफ-हरफ जैसे बरस
मैं देर तक जीता गया
जिंदगी के सवाल पर
शायद एक जवाब रख गए थे तुम !
सुलगी तिल्ली रात की
और चाँद जैसे जल उठा
जानता हूँ वो बदरंग हुआ
तो नीला नकाब रख गए थे तुम !

Monday, October 18, 2010

मैं!


जाने कहाँ खुद को रखकर भूला
और ढूंढता रहा फिर,जिंदगी के अज़ाबों में !
याद करता रहा खुद को रातों में जगकर
नहीं पाया जाने क्यों खुद को ख़्वाबों में ?
यूँ मुस्तकिल हो चला
दिल बुस्दिल हो चला
कुछ अपने ही सवालों के जवाबों में !!
कुछ पन्ने थे फट गए
कुछ किस्सों में बंट गए
नहीं मिला मैं खुद को वक़्त की किताबों में !!
मुझे खुद के होने की
जब कोई वजह मिली
मैं खो गया अजनबी से असाबों में !!
और हो गया धीरे धीरे
अपना ही गुनेहगार
उलझता गया सोच के हिसाबों में !!


अजाब- सजा
मुस्तकिल-स्थिर
असाब-कारण



Monday, October 11, 2010

ख़ामोशी!


तुम न आये मगर
ख़ामोशी आकर चली गयी
लफ्ज़ छिपते फिरे
पर वो सब सुनकर चली गयी !
सुना भी क्या इस दिल ने
एक अदना सा फ़साना
जिसमें सिर्फ तन्हाई थी
मुश्किल था तुम्हे पाना
तेरे इंतज़ार में एक अरसे से
मैं एक रात भी न बुन पाई
और वो एक पल में
जिंदगी को ख्वाब बनाकर चली गयी !!
मैं जब तलक थी इस सोच में
तुम क्यों नहीं आये ?
उसने अपने किस्से
यूँ कई बार दोहराए
मैं पूछ न सकी कुछ भी
और वो कहती चली गयी
मेरी चुप्पी पे सवाल उठाकर चली गयी !!

Monday, September 20, 2010

ख्वाहिश..!


अपनी ख़ामोशी में भर लूं
तुम्हारी हिचकी
या कि तुम्हारे मन का
हर ज़ख्म चुरा लूं ।
वो जो चुभते हैं
होले-होले
यूँ भी कई रंग घोले
उन आंसूओं को ही
हरदम चुरा लूं ।
कब तक रहूँगा ऐसे
और तुमसे कहूँगा कैसे
क्यों न बिन कहे ही
तुम्हारे उतारे हुए
वो तन्हा से मौसम चुरा लूं ।
मैं पूछता फिरता हूँ
जहाँ भर में
तुम्हारे लफ़्ज़ों का ठिकाना
मौका मिले तो फिर
कोई तुम सी नज़्म चुरा लूं ।
वो अल्हड सी हसरत
जो अक्सर गोल हो जाती है
मिल जाये उसकी मिटटी
तो गीली सी हर कसम चुरा लूं ।
आती नहीं क्यों तुमको
नीली नींद की फिर एक सुबकी
इस फिराक में कि तुम सोओं
और मैं तुम्हारी जिन्द सी कलम चुरा लूं ।

Monday, September 13, 2010

एक ख्याल ....


तेरी करवट के तले
मैंने अपना चाँद रखा था
तेरी नींद के सिरहाने से
उसको बाँध रखा था।
उन बेचैन बेमियादी सी रातों में
जब आँखों का काजल सुलगता था
कहीं उस नूर में
मेरा वो चाँद भी चमकता था
एक रोज किसी ख्वाब के छिलके पे
फिसलेगा अम्बर भी
ये पक्के तौर पर मैंने यूँ भी मान रखा था ॥
बात उस रोज अपने चाँद को टांकने की थी
जिद फिर रात की सिलवटों में झाँकने की थी
मन से उधडी हुई एक नज़्म के धागे रखता था
नया बुनने की हसरत लिये ही बस जगता था
कुछ रेशमी से धागे धूप के,पलकों में उलझे थे
नाम जिनका इन्ही आँखों ने 'सांझ' रखा था ॥
मैं छोड़ आया था कुछ किस्से
इसी सांझ के मुहाने पर
बड़ा ही हल्ला था उस रोज
समन्दर बसाने पर
मैंने जब गौर से देखा अपनी उसी नज़्म को
तो उसमें लिपटा अम्बर से उतरा पहला चाँद रखा था ॥

Wednesday, September 8, 2010

एक-दूजे के लिये..!



न जाने क्यों मैं पड़ गया
मन के हेर-फेर में
सोच ने फिर एक नया आशियाना बुना
मैंने देखा रहकर वहां भी तन्हा
मगर तन्हाई ने फिर एक फ़साना बुना !
मैंने खुद से भी देर तक बात की
बस यूँ ही नहीं ऐसे एक रात की
सुबह तलक भी जैसे तैसे रुका
फिर ख़्वाबों ने नया ठिकाना बुना !
फिरता रहा इधर-उधर मन का खाली घर लिये
खुद से होकर बेखबर,तेरी खबर लिये
फिर कहीं से तुमने आकर दी दस्तक
इश्क ने मेरा खोना और तेरा पाना बुना !
कैसे भीगे दोनों उस बरसात में
दोनों की ख़ामोशी थी जब साथ में
मैं अब तक भूला नहीं वो मंजर
जब लफ़्ज़ों ने दिलों का शामियाना बुना !
देर तक एक-दूजे में दो मन जले
दूर तक संग जब हम दोनों चले
जैसे वक़्त की बंदिशों से परे
हमने जिंदगी सा कुछ 'सयाना' बुना !
ढूंढता था तुम्हे मन की चिठ्ठी लिये
या कि खुद को,तेरे रंग की मिट्ठी लिये
वो जगह जहाँ अब तलक दोनों ही नहीं थे
दोनों ने ही एक-दूजे का आना जाना बुना !

Saturday, August 28, 2010

मुश्किल


एक ही मुश्किल थी
कि उसकी कोई हद नहीं थी
चाह थी मुद्दत से
मगर वो 'जिद' नहीं थी #
देर तक बैठा था
तन्हाई की फांक लिये
इश्क रूहानी था
पर वो अब तक मुर्शिद नहीं थी #
रोज ख़्वाबों को, बैठ
चाँद सा गोल करता था
फिर भी कोई रात स्याह सी
अब तलक 'ईद' नहीं थी #
गढ़ आया था जेहन में
यूँ तो कई कलमे
इबादत के लिये न मंदिर था
और कोई मस्जिद नहीं थी #
एक ही मुल्क था दिल का
एक ही था अपना मजहब
फासले थे मगर
फिर भी कोई सरहद नहीं थी #
नहीं मालूम,क्यों उसमें
मैं खुद को ढूंढता था
यही लगता था
कि वो औरों सी मुल्हिद नहीं थी #

('मुल्हिद-वो जो समझता है रब हो भी सकता है और नहीं भी ')

Monday, August 16, 2010

हूक!


वो बेवजह ही एक वजह होना
एक चाह......
न खुद में ही खुद का होना !
रोज आवाज देना
और कहना खुद से
रात होते ही ख़्वाबों को
बस सुला देना !
मैं अपनी हूक को
एक नज़्म में भर आया हूँ
कोई पूछे तो बस
चुपके से उसे सुना देना !
वो तन्हाई जिसका
सौदा करना है अभी बाकी
जिंदगी आये तो
उसका मौल बता देना !
मैं उसके ख़त
अभी ही जला आया हूँ
मेरी ख़ामोशी को
हो सके तो और सुलगा देना !
वो अनजाने ही बनता
फिर एक रेत का घर
एक कतरे में ही
उसको यूँ ही बहा देना !
किसी के हाथ लग जाये न
ये मन का खंजर
इस से बेहतर है कि
इसको 'कलम' बना देना !

Tuesday, August 10, 2010

दो पैसे की बातें!



याद आती होंगी न मेरी
वो दो पैसे की बातें
वो गुल्लक सी खनकती
अनगिनत सपनों की रातें #
वो फटे-पुराने पन्नो की
ऊँची सी उड़ाने
वो मिटटी में दबे हुए
मन के कई खजाने
जहाँ अनजाने ही
गुड्डे-गुडिया से थे अपने नाते #
याद आती...........दो पैसे की बातें#
वो मेरा कुछ भी कह देना
और वो बेवजह तुम्हारा हँसना
तब तक शायद नहीं आता था
यूँ भी ख़ामोशी में फंसना
कोई हिसाब न था उन लम्हों का
है अब भी जिंदगी के अधूरे खाते #
याद आती........दो पैसे की बातें#
वो तुम में मेरा उलझना
और फिर मन का खींच जाना
किसी बात पे एकदम रोना
और आंसूओं का पलकों में भींच जाना
फिर कई दिनों तक एक-दूजे को बिलकुल नहीं सुहाते #
याद आती..........दो पैसे की बातें#
वो मेरा कहते रह जाना
पर नहीं तुम्हारा थकना
जब जो मन में आ जाये
सीधा उसको ही बकना
उन ज़ज्बातों की बारिश में
न कभी खुले मन के छाते#
याद आती.......वो दो पैसे की बातें#
तोड़ गए तुम अनजाने ही
मन के कई खिलोने
छोड़ गए तुम खाली खाली
यादों के कुछ कोने
पहले कितना शोर थे करते
अब क्यूँ नहीं बुलाते#
याद आती......दो पैसे की बातें##

(दीपशिखा जी को धन्यवाद,जिनके ब्लॉग से दो पंक्तियाँ लेकर मैंने ये रचना लिखी!)

Wednesday, August 4, 2010

मेरी कलम!


चलती है मन की कलम तो सुकूं सा है
ये कल्पनाओं का घरोंदा मेरे लिये जुनूं सा है !!
जो सोच अक्सर इर्द-गिर्द रहती है मेरे
उसको शब्दों में पिरोना, खुद से गुफ्तगू सा है !!
ये 'आह' है, नहीं इसकी खातिर 'वाह' की गुजारिश
ये एहसास जिंदगी की जुस्तजू सा है !!
यूँ लगता है हो रही हूँ धीरे धीरे,खुद से मुखातिब
मेरा वजूद कहीं,मुझसे रु-ब-रु सा है !!
इसकी महक है,गर हर दिल तक
तो बस ये मेरी 'खुशबू' सा है !!
एक कसक से उठी,नज़्म भर नहीं
हर लफ्ज़ इसका मेरी रूह सा है !!

Friday, July 30, 2010

'जिंदगी' और मैं!


वो जी रहा था 'जिसे'
मैं 'उसको' एक किताब में पढ़ रहा था
वो हकीक़त ही थी
'जिसको' एक मुद्दत से मैं ख्वाब में गढ़ रहा था॥
कुछ खूबसूरत लफ़्ज़ों की नक्काशी
ख़ामोशी भी फुर्सत से गयी तराशी
परत दर परत बुनी उस कहानी से
मेरे मन का बादल भी उमड़ रहा था ॥
बरस रहा था मन में होले होले
कुछ रंग कल्पनाओं के घोले
और मैं बस भीगता जा रहा था
वो रंग अब मुझ पर भी चढ़ रहा था ॥
'उसका' दर्द मैं खुद में बो चुका था
मेरे वजूद में वो 'किरदार' शामिल हो चुका था
मैं खुद धीरे धीरे खाली हो रहा था
और वो चुपचाप से मुझ में भर रहा था ॥
मैं कहानी को खत्म करने की जल्दी में था
या खुद को भूलने की गलती में था
उसको खुद में शामिल करने की एक चाह
और उस 'जिंदगी' का अक्स मुझ में निखर रहा था ॥

Monday, July 26, 2010

एक कलम..!



मैं भटकी हूँ दर दर
जिंदगी के लिये फकीर सी !!
बह गयी आँसूं बन
हर आरज़ू नीर सी !!
हाथ में थी बस कलम
"आह" ज्यादा,लफ्ज़ कम
लिख गयी दर्द को
अपनी तक़दीर सी !!
मैं न रीझी कभी
हीर-रांझे सी प्रीत पर
मैं न झूमी कभी
किसी प्रेम गीत पर
मैंने हर व्यथा बुनी
बस जिंदगी की रीत पर
और बन गयी वो व्यथा
मेरी ही तस्वीर सी !!
मैं सोच में न थी
अपनी किसी भी हार पर
मैं न रुकी कभी
किसी अधूरे प्यार पर
जो भी कहा था बस
सच की धार पर
मेरी सच्चाई बन गयी
मेरे लिये जंजीर सी !!
ऐ! रब भरके भेजे
जब भाव तूने रग में
मैंने वाही बांटा सबसे
तेरे बेदर्द जग में
मैंने बस वही लिखा
जो ख़ामोशी कहती गयी
मैंने बस मिटानी चाही
दिलों में खिंची लकीर सी !!

#कुछ अल्फाज़ ...अमृता प्रीतम जी के नाम#

Thursday, July 22, 2010

क्यों दिखती नहीं वो..











वो मुट्ठी बंद थी एक रोज से
जो जब तब खुल जाती थी
वो भी कोई दौर था
जब जिंदगी आबो-हवा में घुल जाती थी ।
वो एक ख़्वाबों की खुसफुस
जो बड़ा शोर करती थी
एक चुप्पी पे भी अम्मी
तब बड़ा गौर करती थी
न था ऐसा कभी कि
हसरत यूँ ही फिजूल जाती थी ।
एक कोरे से मन पर
जाने कितने रंग रहते थे
फलक के कुछ तारे
रात दिन संग रहते थे
एक झोंकें में अनगिनत
ख्वाहिशें झूल जाती थी ।
रात के तकिये तले से
चुराते वो नानी के पोथे
गहरी नींद के दरिया में
वो चाँद संग गोते
हाँ!कभी कभी अपनी जगह
परियां भी स्कूल जाती थी ।
एक भोली सी जिद पे
छोटी सी जंग होती थी
कोई सरहद नहीं थी शायद
ख्वाहिशें पतंग होती थी
वो मुझ में इतना खोयी थी
कि खुद को भूल जाती थी ।
पर अब किसने बो दिए
उन्ही आँखों में कुछ मंजर कंटीले
रोज छिलते है वो सपने
रोज होते है अब गीले
बड़ा मासूम सा दिल है
कहीं कोई तो मुश्किल है
पूछता है 'अब क्यों दिखती नहीं वो '
'जिंदगी पहले तो रोज मिल जाती थी'

Monday, July 19, 2010

नज़्म!


वो एक लिबास ख्वाब का
जिसे पहनकर तू फबता था
कि तेरी उस चाशनी में वो फीका सा चाँद
किस तरह से दबता था
रोज करता था शिकायत
रोज एक नयी रवायत
रात के इश्क में किसी
दीवाने सा जलता था ॥
एक अम्बर का चुलबुला
दूजा मेरे मन का बुलबुला
मुझे दोनों की फिक्र थी
तो सारी रात जगता था ॥
बड़े कच्चे से थे धागे
कहीं उलझे,कहीं टूटे
लफ़्ज़ों की गिरफ्त में
मैं दोनों को ही रखता था ॥
एक ऐसी नींद बुनता था
जहाँ दोनों ही सो जाये
और फिर सारा जहाँ
ख्वाब की चाशनी में
गोल सी वो नज़्म चखता था॥

Tuesday, July 13, 2010

इश्क!


तब भी सुनता था एक राँझा था ..एक हीर थी
तब भी शायद अब सी ही इश्क की पीर थी
वो एक आह जो दो दिलो में घुला करती थी
मुझे मालूम है जिंदगी की खिड़की किस और खुला करती थी
और किस तरह सरकता था चाँद आहिस्ता आहिस्ता
खींचती रोज यूँ ही हसरतों की ज़ंजीर थी॥
ख्वाबों के टेढ़े-मेढ़े से रस्ते कभी हुए नहीं सीधे
रब बदला,नए कलमे ने गढ़े सदियों ही कुछ कसीदे
मैं भी ऐसे ही कुछ दूर तक अभी चलकर ही लौटा हूँ
आज आईने में मैं ही नहीं था कोई और तस्वीर थी॥
सोच में फंसा था कि क्या अक्सर ही इतना शोर होता था
जब ऐसे ही खुद की जगह कोई और होता था
इसी सवाल के जवाब में जब उलझा था मैं कहीं
लिखी जा चुकी इश्क की फिर एक नयी तकदीर थी॥

Tuesday, July 6, 2010

एक ख़त!


एक ख़त तुम्हारा
या जिंदगी का एक टुकड़ा
जिसमें लिपटा चाँद
मन की आंच पर रोटी की तरह सिक रहा है
सदियों से प्रेम का भूखा
कोई ख्वाब इंतज़ार करता दिख रहा है
मैं रात को भी न्योता दे आया हूँ
कह आया हूँ,आ जाना
बाँट लेंगें सब बराबर बराबर
एक कोर जिंदगी का तुम भी खा जाना
अरे हाँ!ख़ामोशी से तो कहना भूल ही गया
अब समझा क्यों लफ्ज़ चीख रहा है॥
रुको लेकर आता हूँ दर्द के दोने
नींद सुलग जाये तो अच्छा है
सब जागे रहे,जाये न कोई सोने
मैं कुछ तन्हा से लम्हे
देखो खरीद लाया हूँ
आज बहुत सस्ते में वक़्त बिक रहा है॥
आ जाओ सब, अपना अपना कोर ले लो
कम पड़ जाये तो मुझसे और ले लो
मगर खा लो जी भर
रह न जाये कोई कसर
ताकि मैं जवाब में लिख दूं
अब ख्वाब,'तुम बिन' जीना सीख रहा है॥

Tuesday, June 29, 2010

जीवन............


बस आज फिर यूँ ही वो बचपन याद आया
किसी मासूम सी जिद पे सिसकता मन याद आया!!
कैसे जिए वो पल अपने ही ढंग में
रंग लिया था जिन्दगी को जैसे अपने ही रंग में
आज देखा जो खुद को,वो सब याद करके
ऐसा लगा कोई भूला सा दर्पण याद आया!!
वो रंग-बिरंगी सी सपनों की किश्ती
वो भूली सी रिमझिम की भोली सी मस्ती
कहाँ छोड़ आया वो मिटटी के खिलोने
परियों की कहानियों से अपनापन याद आया!!
पलता हर पन्ना,जिंदगी थी कोरी
मन की कडवाहट में गुपचुप थी लोरी
मैं खोज रहा था जब अपने जीवन का आकार
तो मुझको बस वो हाथ का 'कंगन' याद आया!!
चारो ही तरफ जैसे तब बिखरे थे उजाले
मुझसे लिपटे अँधेरे को अब कौन संभाले
कैसे भूल गया मैं वो अम्बर का पहाडा
मुझे चरखे वाली नानी का संग याद आया॥
आज सब कुछ याद करके जैसे एक सवाली था मैं
बहुत कुछ पाकर भी जैसे खाली था मैं
जिंदगी को भूल,खुद को कैसे जी रहा था मैं
बहुत रोया मैं,जब मुझे अपना जीवन याद आया!!



(कंगन-माँ का कंगन)

Tuesday, June 8, 2010

चलो रूमानी हो जाएँ :)


आ,दोनों अपनी उँगलियों से पानी को छेड़े
और बैठे बैठे ख़ामोशी को यूँ उधेड़े
कि हर लफ्ज़ खुद में कहानी हो जाये
इन बूंदों की गिरफ्त में चलो रूमानी हो जाएँ ॥
आ जिंदगी फिर कभी न ऐसे छलके
हो जाये दोनों यूँ मन से हल्के
हर कतरा जिंदगानी हो जाये
इन बूंदों की गिरफ्त में चलो रूमानी हो जाएँ ॥
इश्क के दो गरम प्याले
बस अब तो हम लबों से लगा ले
कि पीते ही हर एहसास रूहानी हो जाये
इन बूंदों की गिरफ्त में चलो रूमानी हो जाएँ ॥
साँसों में घुलते ठंडी हवाओं के झोंकें
दबी हसरतों को मिलते से ये मौके
इस से पहले कि मंज़र आसमानी हो जाये
इन बूंदों की गिरफ्त में चलो रूमानी हो जाये ॥
तुझ मुझे में अब भी है वो बातें
वो सोये से दिन,वो जागी सी रातें
खाते में और एक शाम सुहानी हो जाये
इन बूंदों की गिरफ्त में चलो रूमानी हो जाएँ ॥

Thursday, June 3, 2010

न डूबे!


देख! तेरे आंसूओं से कहीं किनारा न डूबे
नम से ख़्वाबों में रात का कोई तारा न डूबे!!
मुझे खबर है कई रोज से तुम सोये नहीं हो
थक भी गए हो इतना कि और रोये नहीं हो
भर गया है किसी हद तक तेरे मन का समन्दर
याद रखना!कहीं इसमें तेरा कोई प्यारा न डूबे!!
चाँद भी देख रहा है, सब कुछ बादलों की ओट से
रात सिहर रही है, टूटे ख़्वाबों की चोट से
चांदनी झिलमिला रही है फिर भी तुझ में
देख!तेरे दिल को रोशन करता ये नज़ारा न डूबे!!
मुझे अपना समझ, दिल की दिल से बात होने दे
मुझे तन्हा न कर,बस अपने साथ होने दे
बना ले मेरे दिल को अपनी कश्ती
ये प्यार तेरा मेरा फिर दोबारा न डूबे!!
समेट लेने दे आंसूओं को, पलकों की कोर से
भरोसा कर,न होगी कोई गलती मेरी ओर से
देख सकता नहीं जिंदगी को और यूँ छलकता
है कोशिश यही,ख्वाहिश कोई बेसहारा न डूबे!!

Friday, May 28, 2010

कौन?


मैं हैरां भी हूँ और परेशान भी हूँ ये देखकर
मेरे सपनों के रंग बदलता है कौन?
मेरी तन्हा सी,अनजानी सी आरज़ू में
आखिर बेपरवाह सा मचलता है कौन?
हाँ!मैंने भी भरी थी कभी उडान
न जाने किसके हाथों कटी थी पतंग
मैं अपने हर गम में जब तन्हा ही हूँ
तो मेरे आंसूओं में आखिर यूँ पलता है कौन?
मैं आज तक न समझा
क्या सही और क्या गलत
पर जब भी मिलता हूँ खुद से
खुद को पाता हूँ और सख्त
फिर भी इस पत्थर से दिल में
अनजाना सा आखिर पिघलता है कौन?
चुभ रहा है मेरी आँखों में क्यों ये आइना
नहीं भाता मुझको आखिर क्यों मेरा होना
मैं ढूंढता हूँ आखिर क्यों खुद से ही दूर
किसी अनजाने वक़्त का कोना
धीरे धीरे से हर पल,हर लम्हे में
मुझे,खुद में इतना खलता है कौन?
मैं बैठा हूँ क्यों लफ़्ज़ों से परे
जी रहा हूँ क्यों पल ख़ामोशी भरे
या कि ये ख़ामोशी भी है कहीं दबी
इसको भी मैं न सुन पाया कभी
जिंदगी के इस अनकहे सूनेपन में
फिर यूँ आवाज़ करके चलता है कौन?

Sunday, May 16, 2010

मन..


चुभता है सुई की तरह
कहीं तो जरा टंकने दे
हो जाने दे छेद जरा
मन से कुछ तो टपकने दे।
छूने दे क्या गीला है
बेरंग है या नीला है
कोई तो आकार मिले
कितना है ये नपने दे॥
कच्ची मिटटी का सांचा
खींच जाने दे खांचा
जल जाने दे धूप में
थोडा सा तो पकने दे॥
हो न कहीं खट्टी निंबोली
आने दे शब्दों की टोली
ख़ामोशी को आज जरा
जी भर सब कुछ बकने दे॥
देखूं, जीवन क्या तीखा है
या कि बिलकुल फीका है
ख्वाहिश का कोई रुखा कोर
आज जरा मन छकने दे॥

Wednesday, May 12, 2010

तिश्नगी !


ये कैसी तिश्नगी है
कि आंसूओं को भी प्यास लगने लगी है।
आधा सा तुझ में खोया है
और आधा खुद में बोया है
जोड़ा है आज दोनों को जो
पाया यही जिंदगी है।
चाँद भी आज रुखा है
फिर ख्वाब कोई भूखा है
एक टीस जीने की
मन के चूल्हे में फिर सुलगी है।
नींद के उधड़ने से
कुछ फंदे गलत पड़ने से
एक रात जाने क्यों
बरसों से जगी है।
लगता कुछ बेरंग सा है
फिर भी जैसे संग सा है
उसमें ही ख्वाहिश कोई
आज भी भीगी सी है।

Friday, April 30, 2010

कसाव!


तुम यूँ ही नहीं सब कहते थे
कि बस तुमको फंसना होता था॥
मेरे हर उदास से पल में
न यूँ ही तुम्हारा हँसना होता था ॥
कुछ किस्से, जो न कभी पढ़े
चेहरे पर तेरे छपते थे
मैं अब तलक कहाँ तक चला
जैसे बस तुमसे ही नपते थे
जहाँ मैं खुद भी नहीं रहा
वहांयूँ ही नहीं तुम्हारा बसना होता था ॥
वो रंग जो सिर्फ मेरे थे
जाने क्यों तुम पर भी फबते थे
उन साँसों की गर्माहट में
अनजाने ही नहीं हम तपते थे
वो ढीली ढाली सी बातें
क्यों सब तुमको ही कसना होता था ॥
सोयी सी आँखें रहती थी
जागी सी एक जंग लिये
तुम दूर जाते दिखते थे
ख़्वाबों की पतंग लिये
अम्बर के उस कोरेपन में
तब जीवन को रखना होता था ॥

Monday, April 26, 2010

नहीं..!


तुम बिछड़े तो क्या बिछड़े
फिर मैं खुद से भी मिला नहीं
क्यों तुमसे शिकवे रखता हूँ
और खुद से कोई गिला नहीं॥
आज कसी जो डोर मन की
टूटकर हाथों में ही रह गयी
जब बांधा था तुम्हे बंधन में
तब क्यों न देखा कहीं कुछ तो ढीला नहीं॥
आधी रातें तुम ले गए
और आधी मैं ही कहीं रख भूला
जागने की यूँ लत पड़ गयी फिर
कि उन ख्वाबों का कोई सिलसिला नहीं॥
आँखों के सूनेपन में तू
यूँ बेरंग सा भर आया
देर तलक यही देख रहा था
कतरे का रंग क्यों अब नीला नहीं॥
हर कतरा,धागे सा था
फिरता था पैबंद लिये
दिल की कांट-छांट बाकी है
शायद अब तक यूँ ही सिला नहीं॥

Sunday, April 18, 2010

वो!


वो जो रहता है मुझे में जिंदगी की तरह
ढूंढता हूँ उसे कि शायद हो वो किसी की तरह
वो आकर कभी पहचान अपनी दे जाये
नहीं रहना चाहता संग उसके अजनबी की तरह!!
लफ्ज़ खो जाये कहीं.उसको जो चुप सा देखे
आइना बन के मन और भला क्या देखे
क्यों मिलता नहीं वो मुझसे
यूँ भी सभी की तरह!!
क्या उसने भी लगाया है
औरों सा मुखोटा
या उसको समझने में
पड़ जायेगा जीवन छोटा
सोच बनती जा रही है जैसे सदी की तरह!!
वो चाहे तो तन्हाई मेरी संग ले ले
कुछ रंग रख छोड़े है वो सारे रंग ले ले
मगर हो जाये शामिल मुझे में
मुझ ही की तरह!!

Wednesday, April 7, 2010

कभी!!


जले न तेरा मन कभी
न हो तुझे जलन कभी
रिसने दे ख्यालों से
भीगी सी उलझन कभी !
मीठी सी हूक से
जादू की फूंक से
मिट जाये मन की तेरे
सारी थकन कभी!
दर्द की सिसकी से
यादों की हिचकी से
तू छीन ले,जी भर
अपना जीवन कभी!
सपनों की भीख से
ख़ामोशी की चीख से
दब जाये न तुझ में ही
तेरा अपनापन कभी!
मन की गहरी थाह से
इस दिल की राह से
तू आ जाये खुद के यूँ करीब
छले न दर्पण कभी!

Saturday, April 3, 2010

फिर भी..


ताउम्र जिंदगी से निभाने की सोच लिये फिरते है।
खुद पर खुद ही का बोझ लिये फिरते है॥
ढूंढते है जहाँ भर में
सूरत दिखती नहीं अपनी नज़र में
और आईना दर दर पे रोज लिये फिरते है॥
रहते है खुद से बेखबर से
असलियत मालूम होने के डर से
और जहाँ भर की खोज लिये फिरते है॥
रोज ख़्वाबों में पलते है
खुद को यूँ कई बार छलते है
फिर भी उन्ही आंसूओं की फ़ौज लिये फिरते है॥
घूंट घूंट पीकर भी प्यासे है
उलझी,उम्मीद के धागों में अपनी साँसें है
जाने किस बात की मौज लिये फिरते है॥

Saturday, March 27, 2010

भूख!





जिंदगी! बस इतना बता दे मुझको
तू उम्मीद की जगह क्यों मुझे में भूख बोती है
मैं चाहकर भी सुकून से सो नहीं पाता
रात का चाँद भी मुझको लगता 'रोटी' है ॥
झांकता हूँ जब भी खुद में
चूल्हे सा जलता हूँ
रोज इस भूख की खातिर
अपने आंसूओं पे पलता हूँ
रोज तू मुझे में फिर ऐसे ही भूखी सोती है ॥
रोज ही बनता हूँ मैं मिटटी पर गोले
कि शायद धूप में सिककर ये रोटी हो ले
और मैं बैठकर इसको फिर जी भर खाऊँ
रोज ये आस क्यों आखिर मुझको होती है ॥
या तो मिल जाये कहीं से मुझको दो दाने
या बता दे मुझको उन ख़्वाबों के ठिकाने
एक लम्बी नींद लग जाये वहां शायद मुझको
न पूछ पाऊँ फिर तुझसे क्यों मुझे ढोती है ॥







Monday, March 22, 2010

दर्द!!



जिंदगी को जिंदगी होने का दर्द है
खुद को खुद में ही खोने का दर्द है॥
एक आस पर जीती है
और रोज उस में ही बीती है
एक उम्मीद में खुद को बोने का दर्द है॥
वो जो खाली सा रहता है
हरदम सवाली सा रहता है
मन के उसी खाली कोने का दर्द है॥
ख्वाब रोज ही छिलते है
अक्सर गीले ही मिलते है
अपने ही आंसूओं के रोने का दर्द है॥
वो जो बचपन में होता था
मिल जाता था,जब भी रोता था
याद आते उस जादू-टोने का दर्द है॥
कैसे मन को चुभता था
जब कलम से
खुदता था
उन्ही ख्वाहिशों को लफ़्ज़ों में
ढ़ोने का दर्द है॥

Sunday, March 14, 2010

ख़त!



कल देर तक ख़ामोशी से जदोजेहद में था
आखिर जिंदगी का एक ख़त हाथ लग गया था।
और ख़ामोशी भी आ गयी थी कशमकश में
कि क्यों में लफ़्ज़ों के साथ लग गया था॥
कुछ लफ्ज़ अधमरे थे
कुछ सोच से परे थे
पर इतना तो तय था
वो मुझसे भरे थे
मेरे इस रवैये पे ख़ामोशी उलझन में थी
कि क्यों मैं लफ़्ज़ों में बिन बात लग गया था॥
ख़त लिखने में लगी
रातों की स्याह थी
और हर लफ्ज़ में
जैसे चुप सुबह थी
इस सबसे दूर,ख़ामोशी अपनी ही अनबन में थी
और मैं खुद को समझने में दिन रात लग गया था॥
ख़त के हर लफ्ज़ में
जिंदगी की आह थी
और इस दर्द में
सोच अब गुमराह थी
मैं जिंदगी से अब सब कुछ कह देना चाहता था
ख़ामोशी से सुलह में हर ज़ज्बात लग गया था॥

Wednesday, March 10, 2010

कहानी..


कुछ पन्ने भी फटे थे
कुछ लफ्ज़ भी कटे थे
तेरी मेरी उस कहानी से
किरदार भी छंटे थे ।
एक टुकड़ा मेरे दिल का
अब चाँद बन गया था
एक टुकड़ा तेरे दिल का
ख़्वाबों में सन गया था
एक नींद लग गयी थी
दोनों को एक जैसी
जहाँ दोनों टुकड़े
आपस में पास आ सटे थे ।
जबरन कराये खाली
दोनों ने मन के कोने
एहसास कहानी के
थककर लगे थे सोने
एक प्यास लग गयी थी
दोनों को एक जैसी
जीकर वो दर्द ,रोने को
अब कतरे भी बांटे थे ॥

Saturday, March 6, 2010

कशमकश!





ख़ामोशी तेरी मेरी एक दूजे में उलझी थी
यूँ ही नहीं था बातों का उधड जाना
लिपटे जा रहे थे धागे दोनों के मन पर
जायज था सोच के बोझ का बढ़ जाना ॥
लफ़्ज़ों की आपस में ऐसी अनबन थी
सोच को होने लगी उलझन थी
ऐसे में आखिर मन ही क्या करता
आसां था ख़ामोशी की परत का मन पर चढ़ जाना ॥
खोजा तो पाया मन की कोई गिरह नहीं थी
जिंदगी से भी अब कोई भी जिरह नहीं थी
बस लफ्ज़ अपना ठिकाना बदल रहे थे
जायज था मन से सोच का बिछड़ जाना ॥
खुद में ही बहुत खाली होने लगा था
ख़ामोशी पर सवाली होने लगा था
तेरी मेरी इस चुप सी मुलाकात का
जायज था ख्यालों की कशमकश में पढ़ जाना ॥

Monday, March 1, 2010

नासमझी



जब दूर बहुत दूर
तुम अपने ही ख़्वाबों में मशगूल थे
मेरे ख्वाब तुम्हारे न होने को दे रहे तूल थे ॥
उलझ रहे थे बेवजह ही मेरी अपनी तन्हाई से
खुश नहीं थे वो शायद तुम्हारी रिहाई से
और मैं एकटक देख रही थी यादों का धुंधलापन
तुम्हारे साथ बिताये लम्हे,खा रहे समय की धूल थे ॥
जो याद कभी तुम आते थे,वो आँखों में चुभते थे
मन आवाज लगाता जाता था,पर वो चाहकर भी कहाँ रुकते थे
वो कल के पानी के मोती जैसे बन गए अब शूल थे ॥
खाली कर देना चाहती थी खुद को
खुद में खुद को भी रखा न जाता था
बेस्वाद हो गया था सब कुछ
मन से अब कुछ भी चखा न जाता था
शायद इसलिए अब तक न समझ सकी
तुम कडवी याद थे या कोई मीठी भूल थे ॥

Wednesday, February 24, 2010

बात पुरानी है....



बात पुरानी है ...
जब ख्वाब बहुत ही छोटे थे
और हम उन पर लगाते मन के गोटे थे
फिर कैसे वो चमकते थे
और हम कितने खुश होते थे
बात पुरानी है ...
जब हो जाते थे खट्टे
नींबू के अचार में
मिश्री की डलियाँ घोलते थे
नानी-दादी के प्यार में
बात पुरानी है ...
हो जाते थे जब हम ढीले
वो कस जाया करती थी
पर जब हम उसमें पतंग से उलझते थे
वो गुपचुप हंस जाया करती थी (माँ)
बात पुरानी है ...
अक्सर हम जागते रहते थे
रातें थककर सो जाती थी
चरखे वाली नानी से
यूँ बातें कुछ हो जाती थी
बात पुरानी है ...
कैसे हम गोल गोल
चाँद के चक्कर लगाते थे
वो हमें कहानी कहता था
और हम वहीँ सो जाते थे
बात पुरानी है ...
कैसे हम सूरज को उठता देख लेते थे
उसकी गर्माहट पर
ख्वाहिशों की रोटी
सेंक लेते थे
बात पुरानी है ...
कैसे हम जिद करके
हवाओं से दौड़ लगाते थे
कौन किस से है आगे
बस ये होड़ लगाते थे
बात पुरानी है ...
कैसे मन की मिटटी को
बारिश में गीला करते थे
फिर कैसे सपनों से
उसका रंग नीला करते थे
बात पुरानी है...
कुछ भी पाने की जिद में
हम कैसे खुद को खोते थे
रह जाते थे खुद छोटे
और आंसूं मोटे मोटे थे
बात पुरानी है...
ऐसा लगता था तब शायद
जिंदगी जादू की पुडिया थी
मन के कुछ खिलोनों में
ये भी प्यारी सी गुडिया थी
बात पुरानी है...
उन यादों के आगे जैसे
अब भी सब कुछ बौना है
वो होता तो जीवन था
ये होना भी क्या होना है................


Sunday, February 21, 2010

शायद



तेरे लिये रात गुजारने को
खाली करके पलकों के कोने रखता ॥
गर मालूम होता तुम आओगे
मैं ख्वाबों के बिछोने रखता ॥
रह जाता चाहे खुद भूखा
देता तुम्हे जरुर रुखा-सूखा
प्यास तेरी बुझ जाती शायद
जो भरके मन के दोने रखता ॥
मिल जाती गर पहले ही चिठ्ठी
बचा लेता थोड़ी सी मिटटी
तुम आते जब,बीज जिंदगी के
शायद तुम में बोने रखता ॥
शायद कुछ गम तेरे होते
और कुछ आंसूं मेरे होते
सब कुछ तसल्ली से पोंछ-पांछ कर
सुबह तक सोने को रखता ॥




Thursday, February 18, 2010

एक सवाल ..


वो वक़्त-बेवक्त भागता है अपने ही पीछे
उसको इस जुनूं का असर चाहिए
शायद कम पड़ गया है जिंदगी का आशियाँ
जो अब ईट-पत्थरो का भी घर चाहिए ॥
भूलता जा रहा है वो इस भूल में
जिन्दगी से अपने सारे रिश्ते
बस सोचता रहता है यही
पैसे से भरनी है साँसों की किश्तें
खो आया है कहीं अपनों की दुनिया
बस अब तो ख़्वाबों का शहर चाहिए ॥
फिरता है दर दर खुद को तन्हा लिये
सपनों से भी सुकून का सौदा किये
ऐ दोस्त इतना ही कहूँगा मैं
तकाजे के लिये भी उमर चाहिए ॥
इस ख्वाहिश में सब कुछ बीत जायेगा
हो सकता है जिंदगी से तू जीत जायेगा
मगर हार जायेगा अपना ही वजूद
क्या तुझको खुद की नहीं कदर चाहिए ॥

Tuesday, February 16, 2010

जिरह .


करने लगा जिरह अपने मन से
न जाने क्या क्या जिंदगी को बकने लगा
किस तरह जुदा हुआ खुद से मालूम नहीं
मगर रोज अब अपनी राह तकने लगा ॥
मर रहा था रोज तिल तिल जहर को पिए
सोचता था क्यों बाकी हूँ और किस लिये
और जब याद आई फिर अपनी ही
तो लबों पे वजूद सा कुछ चिपकने लगा ॥
ख़ामोशी आई थी लफ़्ज़ों की कतरन लिये
और एक सिसकता सा मन लिये
क्या क्या नहीं था उस ख़त में
जिसको था मैं अपने लिये रखने लगा ॥
करता था जब कोई सवाल खुद से
जवाब जैसे हो जाते थे बुत से
इस कदर अजनबी हो गया था खुद से मैं
कि आईने में भी था भटकने लगा ॥
जब लगा तन्हा है जिंदगी का सफ़र
मन बनने लगा जैसे रेत का घर
एक एक करके करता रहा क़त्ल
और फिर उन ख्वाहिशों को कफ़न से ढकने लगा ॥

Friday, February 12, 2010

इश्क !(प्रेम दिवस पर विशेष )


मेरा तेरा इश्क देखकर
देखो सूरज जलता है ॥
अपनी ख्वाहिशों के झुरमुट में ही
कहीं रोज ये दिन सा पिघलता है ॥
मैं शब्दों की फिरकी बनाकर
जब भी तुम पर फेंकता हूँ
तेरे मेरे बीच में ये
पगली सी हवाओं संग फिरता है ॥
प्यार भरे लफ़्ज़ों में अक्सर
ख़ामोशी को सुलगाता है
और फिर अपनी ही साजिश में
बनकर राख सा उड़ता है ॥
मैं जब भी तुमसे अपने
ख्वाबों की बातें कहता हूँ
तुमको यूँ पाने की खातिर
वो रोज रातों से लड़ता है ॥
और फिर वो डूबता जाता है
अपनी ही तन्हाई में
जब हम दोनों के इश्क का चाँद
ख्वाहिशों के अम्बर पर चढ़ता है ॥
कैसे भी करके जाने क्यों
तुम में समाना चाहता है
समझ रहा हूँ आखिर क्यों वो
इतना घटता-बढ़ता है ॥
मैं कागज़ की नाव बनाकर
उसको बचाना चाहता हूँ
और एक वो है जो रोज
सांझ के दरिया में ही गिरता है ॥

(कागज़ की नाव =अपनी भावनाओं से)

Wednesday, February 10, 2010

फितरत!!


जूनून बसता है मेरी आँखों में
सुकून कहीं और है
मैं चुप करता हूँ लफ़्ज़ों को
तो खींचता ख़ामोशी का शोर है
रोज होता है कुछ न कुछ ख्वाबगाह में
मगर मिलता नहीं कुछ सोच की पनाह में
और मुड़ जाता हूँ उन बेचैनियों की राह पर
जहाँ चलता बस कलम का जोर है ॥
शहर दर शहर ढूंढता हूँ मैं जिंदगी का चेहरा
अपने वजूद का शायद उस पहचान से है रिश्ता गहरा
उसको यूँ ही पाने की फितरत में
होती जा रही खुद की जरुरत कमजोर है ॥


एक बार फिर रविश जी के ब्लॉग की कुछ पंक्तियाँ भा गयी
ये प्रयास भर है..किसी भी गलती के लिये माफ़ी चाहूंगी..

Sunday, February 7, 2010

घर !


वो जब कहता था कुछ,मैं सोच में पड़ जाता था
अपने सवाल से वो,मेरे ख्यालों को उमर देता था !
मन के किसी कोने में,जब मैं रहता था चुपचाप
वो मेरी तन्हाई को अपने ख़्वाबों का शहर देता था !
मैं भरता जाता था खुद में समन्दर की तरह
और वो ठहरे पानी में उम्मीद की एक लहर देता था !
मैं अक्सर रहता था जब खुद से बेखबर
वो मुझको,मेरे होने की खबर देता था !
मैं देख पाता नहीं था जब कुछ भी अच्छा
वो मुझको,देखने को अपनी नज़र देता था !
जिंदगी भी जब मुझको समझ न पाती थी
वो मेरे साथ होकर,जिंदगी का असर देता था !
वो खेलता था जब मेरे संग आँख मिचोली
तो जैसे मुझे, मेरे ही खो जाने का डर देता था !
मैं छोड़ देता था जब कभी अपना ठिकाना
वो मुझे हमेशा अपने मन का घर देता था !

Thursday, February 4, 2010

रुक!


आज फिर थोड़ी सी जिंदगी
मन के करघे पे कात लूं ॥
ख्वाहिशों के धागों से
बुनने को फिर कोई बात लूं ॥
बैठे रहे यूँ देर तक
ख़ामोशी के कहकहो में
खो जाये साँसों को ढूँढने
उम्मीद की तहों में
थोडा सा रुक,मन कह रहा है
मैं जिंदगी को भी साथ लूं ॥
आ तो गए है संग हम
इस ख़्वाबों के मेले में
करनी है तुमसे गुफ्तगू
मुझको मगर अकेले में
कोई ख्वाब लेने से पहले
सोचता हूँ बाजार से एक रात लूं ॥

Tuesday, February 2, 2010

मन करता है ....


कुछ कहने का मन करता है
सोच की उन तंग सी गलियों में रहने का मन करता है
वो लिखने का मन करता है
जो शब्दों की अबूझ पहेली है
जिस सोच का कोई अंत नहीं
जिन जज्बों से ये दुनिया खेली है
जो ख़ामोशी से रिस न सकी
उस अनकही में बहने का मन करता है ॥
क्यों आखिर खुद में रहते नहीं
क्यों औरों को जीते है
सच्चाई को ढांपने की होड़ में
हम ख़ामोशी भी सीते है
क्यों नहीं करते खुद का विरोध
क्यों सब सहने का मन करता है ॥
क्यों कोई मसीहा लगता है
हमको परदे के किरदार में
क्यों बिक जाते है जीवन-चरित्र
संवेदनाओं के व्यापार में
अवसाद भरे इस खोखले पन का
अब ढहने का मन करता है ॥

(रविश जी के ब्लॉग से प्रेरित होकर)

Monday, February 1, 2010

विजेता !


थोडा सा तू यकीं रख
थोडा सा एतबार कर
तुझे जिंदगी से हो न हो
मगर तू खुद से प्यार कर ॥
वक़्त ने चाहे कितने भी हो
अँधेरे किये
उम्मीद दिल में जलाये है
रोशनी के कई दीये
रातों का न तू खौफ रख
सुबह का इंतज़ार कर ॥
मुश्किलें भी है जरुर
माना कुछ भी आसां नहीं
कोशिश तो करके देख
होगा तेरे पास क्या नहीं
कुछ कर गुजरने से पहले
यूँ ही न अपनी हार कर ॥
खुद को जीत जाना ही
जिंदगी की जीत है
गर तुझको खुद से प्रेम है
तो जिंदगी से भी प्रीत है
इस प्रीत के संबल से तू
औरों के भी दिल गुलज़ार कर ॥
एक राह कहीं रुक गयी
तो मंजिलें खत्म नहीं
गर होंसला है दिल में तो
मेहनत कभी बेदम नहीं
अपने इसी जुनूं से तू
नया रास्ता इख्तियार कर ॥
तुझे जिंदगी से हो न हो
मगर तू खुद से प्यार कर ................................. ॥

Thursday, January 28, 2010

बंजारे!


चल ऐ मन बंजारे
इस दुनिया का भी भरम देखे
कहीं सुलगते से दिल में ही
जीवन जैसा कुछ नम देखे !
कुछ गोल गोल टुकड़े देखे
रूखे सूखे चाँद से
चूल्हे में जलता सूरज देखे
सपनों की ढलती सांझ से
देखे जीवन की मरुभूमि
न बारिश का मौसम देखे !
आखिर क्यों देखे हम इतना
राँझा क्यों बिछड़ा हीर से ?
ऐ मन तू बस इतना समझ
न होगा भला प्रेम की पीर से
क्यों न बन जाये खुद कठोर
क्यों औरों में ही कुछ नरम देखे !
चुगते चुगते पानी के मोती
तुम और हम थक जायेंगें
फिर भी न बन पायेंगें समन्दर
ये प्यास यूँ ही रख जायेगें
फिर क्यों न इन अभिलाषाओं का
संग कहीं खत्म देखे !
करता जायेगा मन मानी
तो खुद से आँख मिला न पायेगा
तू खुद से यूँ रुखसत होकर
दुनिया से जा न पायेगा
आईने को चल झुठला दे
आँखों में थोड़ी शरम देखे !

Monday, January 25, 2010

ख़ामोशी !!



तुम न आये मगर
ख़ामोशी आकर चली गयी
लफ्ज़ छिपते फिरे
पर वो सब सुनाकर चली गयी !
सुना भी क्या इस दिल ने
एक अदना सा फ़साना
जिसमें सिर्फ तन्हाई थी
मुश्किल था तुम्हे पाना
तेरे इंतज़ार में एक अरसे से
मैं एक रात भी न बुन पाई
और वो एक पल में
जिंदगी को ख्वाब बनाकर चली गयी !!
मैं जब तलक थी इस सोच में
तुम क्यों नहीं आये?
उसने अपने किस्से
यूँ कई बार दोहराए
मैं पूछ न सकी कुछ भी
वो कहती चली गयी
मेरी ख़ामोशी पे सवाल उठाकर चली गयी !!


Tuesday, January 19, 2010

उलझन!




तू जूझ रहा था जब अपनी ही उलझन से
मैं आ उलझा तुझ में खुद इस मन से
अश्क खुद-ब-खुद आँखों से उलझ रहे थे
धीरे धीरे उम्मीद के सब दीये बुझ रहे थे
गांठें कई पड़ गयी थी इस खीचतान में
उभर रहे थे जाने कितने झोल जबरन से !
ये गांठें कहीं न कहीं दोनों को चुभ रही थी
ख़ामोशी चुपचाप दर्द की पहेली बूझ रही थी
मैं झाड़ रहा था ख्वाबों को,शायद कुछ मिल जाये
पर दूर कर न पाया सिलवटें तेरी शिकन से !
उलझते जा रहे थे जैसे सोच के सब धागे
कुछ भी तो नहीं था कोरे ख्यालों से आगे
मैं साफ़ कर न पाया अपने अक्स पे पड़ी गर्द
और खामखा उलझता जा रहा था दर्पण से !
महसूस हो गया था ख्वाहिशें कहीं कमजोर थी
टूटी हुई मन से मन की डोर थी
सून रहा था मैं दिल के उस शोर को
जहाँ आह खुद उलझ रही थी चुभन से !


Wednesday, January 13, 2010

दरख्वास्त !





ऐ जिंदगी मेरे होने का कुछ तो इल्म रखना
रखना जरुर मुझसे चाहे कम रखना ।
मैं भूल न जाऊं कहीं तेरे होने का एहसास
मन के किसी कोने को हमेशा ही नम रखना ।
कोरा हूँ,रख न पाऊँगा तुझसे कोई हिसाब
पर साथ अपने तू जरुर एक कलम रखना ।
तू देना होसला मुझे,खुद को जीने का
ख्वाबों की आवाजाही को न कभी खत्म रखना ।
शिकवा न कर पाऊँ कभी मैं तुझसे चाहकर भी
तू देना गर ज़ख्म,तो साथ में मरहम रखना ।
आँखों का रेगिस्तान समन्दर है बन रहा
बस प्यास मेरी बरक़रार हर जन्म रखना ।
कोशिश करू जरुर,भले ही हार जाऊं
मेरी उम्मीद में जीत का इतना दम रखना ।
इंसान न रहूं तो मिट जाये मेरी हस्ती
मेरे वजूद में तू,इतनी तो शर्म रखना ।