Friday, May 30, 2014

या कि...!!


यूँ ही बस कोरा रह जाऊँ
या कि कुछ ज़िन्दगी लिखूँ !
लफ्ज़ लफ्ज़ यूँ बिखरुं
कि अपनी तिश्नगी लिखूँ !
करूं तेरा शहर खाली
या कि हो जाऊँ सवाली
बंजर से पड़े मन में
कोई नीली नदी लिखूँ !
तुझे देखूं किसी भोर में
या कि चाँद के कोर में
अपना गुमनाम सा पता
तुझ पर ही कहीं लिखूं !
वो कुछ कतरे सिरफिरे
जो नींदों में गर आ गिरे
उस पानी से इश्क़ पर भी
तेरा नाम सही लिखूं !
बड़े खामोश है रस्ते
मैं भी कुछ इस तरह चीखूँ
कि अपनी हर एक 'हाँ' पे
मैं बस तेरा 'नहीं' लिखूँ !

Wednesday, March 26, 2014

बिगड़ जाएँ....






यही है चाह
ख़ामोशी टेढ़ा मुंह कर ले
और बातें बिगड़ जाएँ !!
ख्वाब इतने हो बेशक्ल
कि रातें बिगड़ जाएँ !!
दिल पत्थर हो जाएँ
और आईने टूटे
हो अपने ही गुनहगार
खुद को इतना लूटे
चोट ऐसी हो इश्क़ की
कि बरसातें बिगड़ जाएँ !!
चाँद सिले कतरों से 
और यूँ ही फट जाये
और एक तू भी
इधर-उधर कहीं से कट जाये
तन्हाई के कुछ पैबंद
टांक दूं लम्हों पर इस तरह
हिसाब में इश्क़ के
ज़िन्दगी के खाते बिगड़ जाएँ !!


Friday, February 7, 2014

सुनो तुम !!



सुनो तुम
रख दो खुद को
यहीं-कहीं
मैं ढूंढ ही लूँगा
फुर्सत में !!
मैं जब कभी
खुद को कुरेदूंगा
तन्हाई से कह दूंगा
तुम्हे भी भेज दे
ख़ामोशी मेरी
गुमनाम से ख़त में !!
मैं देखूंगा
गर नींद जल्दी जगी
उसे फिर किसी
ख्वाब की तलब लगी
कहीं से तुमको ले आये
इश्क़ की सोहबत में !!
मैं खुद कुछ
मीठा रहूँगा
तुम्हे नमकीन कहूंगा
ज़िन्दगी की लज़्ज़त में !!
तुम मेरी
कोई भूल रखना
या कि याद का फूल रखना
अपने हँसने की आदत में !!




Saturday, January 18, 2014

तू!!


नहीं भूला हूँ अभी तेरे-मेरे
हिस्सों के क़िस्से
तेरी एक धूप  होती थी
मेरी एक छाँव  होती थी!!
हंसी के उस मुहाने पर
नदी जैसे तू मुड़ती थी
तेरा अम्बर नुकीला था
उलझकर ही तू उड़ती थी
जहाँ होता था मेरा पेंच
तू नगें पाँव होती थी!!
नींद के उस कोने पर
बड़ी सिन्दूरी लगती थी
इश्क़ तो सोया होता था
न जाने क्यों तू जगती थी 
अपनी ऐसी ही बारिश में
तू खुद ही नाव होती थी!!
अपनी तन्हाई से लगभग
हौले-हौले सरकती थी
जब भी मन खाली होता था
तभी तू ज्यादा थकती थी
खुद के सिरफ़िरे से ख्वाब का
मुकर्रर दांव होती थी!!






Wednesday, January 8, 2014

तरकीब!!



मैं  जिंदगी की कोई तरकीब लिए था
था कुछ तो ऐसा, जो मैं अजीब लिए था !
एक शहर कुछ गोल सा
बस गया था मुझ में
या कि इश्क़ में मैं
चाँद को रकीब लिए था ! 
समंदर अब भी था
धूप की मुँडेर पर
और मैं खुद को
खुद के करीब लिए था !
कुछ आयतें लिख आया था
उसके दरीचे पर
नींद में भी जैसे
वही तहज़ीब लिए था !
मैं बीत जाऊँ या कि तुम गुज़र जाओ
दिल में न ऐसी कोई
चीज़ लिया था !
कुछ मज़हबी मौसम
फाख्ता से होने लगे जब
दामन में एक बस तेरी
तस्वीर लिए था !!