When emotions overflow... some rhythmic sound echo the mind... and an urge rises to give wings to my rhythm.. a poem is born, my rhythm of words...
Friday, April 30, 2010
कसाव!
तुम यूँ ही नहीं सब कहते थे
कि बस तुमको फंसना होता था॥
मेरे हर उदास से पल में
न यूँ ही तुम्हारा हँसना होता था ॥
कुछ किस्से, जो न कभी पढ़े
चेहरे पर तेरे छपते थे
मैं अब तलक कहाँ तक चला
जैसे बस तुमसे ही नपते थे
जहाँ मैं खुद भी नहीं रहा
वहांयूँ ही नहीं तुम्हारा बसना होता था ॥
वो रंग जो सिर्फ मेरे थे
जाने क्यों तुम पर भी फबते थे
उन साँसों की गर्माहट में
अनजाने ही नहीं हम तपते थे
वो ढीली ढाली सी बातें
क्यों सब तुमको ही कसना होता था ॥
सोयी सी आँखें रहती थी
जागी सी एक जंग लिये
तुम दूर जाते दिखते थे
ख़्वाबों की पतंग लिये
अम्बर के उस कोरेपन में
तब जीवन को रखना होता था ॥
Monday, April 26, 2010
नहीं..!
तुम बिछड़े तो क्या बिछड़े
फिर मैं खुद से भी मिला नहीं
क्यों तुमसे शिकवे रखता हूँ
और खुद से कोई गिला नहीं॥
आज कसी जो डोर मन की
टूटकर हाथों में ही रह गयी
जब बांधा था तुम्हे बंधन में
तब क्यों न देखा कहीं कुछ तो ढीला नहीं॥
आधी रातें तुम ले गए
और आधी मैं ही कहीं रख भूला
जागने की यूँ लत पड़ गयी फिर
कि उन ख्वाबों का कोई सिलसिला नहीं॥
आँखों के सूनेपन में तू
यूँ बेरंग सा भर आया
देर तलक यही देख रहा था
कतरे का रंग क्यों अब नीला नहीं॥
हर कतरा,धागे सा था
फिरता था पैबंद लिये
दिल की कांट-छांट बाकी है
शायद अब तक यूँ ही सिला नहीं॥
Sunday, April 18, 2010
वो!
वो जो रहता है मुझे में जिंदगी की तरह
ढूंढता हूँ उसे कि शायद हो वो किसी की तरह
वो आकर कभी पहचान अपनी दे जाये
नहीं रहना चाहता संग उसके अजनबी की तरह!!
लफ्ज़ खो जाये कहीं.उसको जो चुप सा देखे
आइना बन के मन और भला क्या देखे
क्यों मिलता नहीं वो मुझसे
यूँ भी सभी की तरह!!
क्या उसने भी लगाया है
औरों सा मुखोटा
या उसको समझने में
पड़ जायेगा जीवन छोटा
सोच बनती जा रही है जैसे सदी की तरह!!
वो चाहे तो तन्हाई मेरी संग ले ले
कुछ रंग रख छोड़े है वो सारे रंग ले ले
मगर हो जाये शामिल मुझे में
मुझ ही की तरह!!
Wednesday, April 7, 2010
कभी!!
जले न तेरा मन कभी
न हो तुझे जलन कभी
रिसने दे ख्यालों से
भीगी सी उलझन कभी !
मीठी सी हूक से
जादू की फूंक से
मिट जाये मन की तेरे
सारी थकन कभी!
दर्द की सिसकी से
यादों की हिचकी से
तू छीन ले,जी भर
अपना जीवन कभी!
सपनों की भीख से
ख़ामोशी की चीख से
दब जाये न तुझ में ही
तेरा अपनापन कभी!
मन की गहरी थाह से
इस दिल की राह से
तू आ जाये खुद के यूँ करीब
छले न दर्पण कभी!
न हो तुझे जलन कभी
रिसने दे ख्यालों से
भीगी सी उलझन कभी !
मीठी सी हूक से
जादू की फूंक से
मिट जाये मन की तेरे
सारी थकन कभी!
दर्द की सिसकी से
यादों की हिचकी से
तू छीन ले,जी भर
अपना जीवन कभी!
सपनों की भीख से
ख़ामोशी की चीख से
दब जाये न तुझ में ही
तेरा अपनापन कभी!
मन की गहरी थाह से
इस दिल की राह से
तू आ जाये खुद के यूँ करीब
छले न दर्पण कभी!
Saturday, April 3, 2010
फिर भी..
ताउम्र जिंदगी से निभाने की सोच लिये फिरते है।
खुद पर खुद ही का बोझ लिये फिरते है॥
ढूंढते है जहाँ भर में
सूरत दिखती नहीं अपनी नज़र में
और आईना दर दर पे रोज लिये फिरते है॥
रहते है खुद से बेखबर से
असलियत मालूम होने के डर से
और जहाँ भर की खोज लिये फिरते है॥
रोज ख़्वाबों में पलते है
खुद को यूँ कई बार छलते है
फिर भी उन्ही आंसूओं की फ़ौज लिये फिरते है॥
घूंट घूंट पीकर भी प्यासे है
उलझी,उम्मीद के धागों में अपनी साँसें है
जाने किस बात की मौज लिये फिरते है॥
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