Saturday, September 26, 2009

सुन.!


तू, इस बेचैन दिल की कहानी को सुन
प्यासी आंखों को तरसते से पानी को सुन !
गम के खाते में और क्या बाकी लिखूं ?
इस ज़माने को तो बस मैं साकी लिखूं
भरते जो जा रहे है पैमाने कईं
तू, उन आसूँओं की रवानी तो सुन !
घूँट घूँट भर भर के कब तक इनको पियूं
ख़ुद को इस तरह से मैं कैसे जियूं?
खाली लौटा हूँ, उसने भी रुसवा किया
तू उस जिंदगी की बेईमानी तो सुन !
दो कदम भी न ख़ुद के लिए मैं चला
रुक गया हूँ क्यों, जिंदगी पर भला ?
बहुत मुश्किल में हूँ,सिमटा सा दिल में हूँ
तू, इस बेपरवाह की मनमानी तो सुन!

Friday, September 25, 2009

इस तरह..


रास आया नही मुझे जिंदगी का इस तरह से चले जाना
और गम का मुझको इस तरह से छले जाना ॥
मैं जाता देख उसको खाली हाथ सी खड़ी ही रह गई
न समझ आया उसे मेरा बार बार रुकने को कहे जाना ॥
वो ऐसी रात थी जिसमें मेरे सब ख्वाब रोये थे
उम्मीद की कोख में जिंदगी ने दर्द के बीज बोए थे
रात भर जागकर भी पूरी न हुई जीने की हसरत
तय ही था सुबह का अपनी आंखों को मले जाना ॥
कौन जाने, मैं लम्हा दर लम्हा ख़ुद के लिए तरसती थी
हर उम्मीद आँसू बन हालत पर बरसती थी
मैं देख ख़ुद को अक्सर आईने पे हंसती थी
नही भाता था मुझे अस्तित्व का खले जाना ॥
बड़ा मुश्किल रहा मेरे लिए जिंदगी का ये धोखा
मैं देना चाहती थी फिर भी ख़ुद को भी एक मौका
छोड़ जिंदगी की आस,लिये ख़ुद को जीने की प्यास
बहुत तकलीफ देता था आसूँओं में उम्मीद का पले जाना ॥

Thursday, September 17, 2009

ढूंढता है.....


दिल इबादत ढूंढता है
अपनी चाहत ढूंढता है
जिंदगी की कशमकश में
बूँद बूँद राहत ढूंढता है ।
आसूँओं के जलजलों में
यादों के उन काफिलों में
होता है जब बेपरवाह सा
तो जीने की आदत ढूंढता है।
होती नही उसको कभी ख़ुद की ख़बर
करता है वो जाने क्यों औरों की फिकर ?
कभी ऐसे ही याद आ जाता है जब वो ख़ुद को
बेसब्र होकर तन्हाई का लिखा ख़त ढूंढता है ।
चंद लम्हों में ही डर जाता है वो
एक उम्मीद भर से,इस कदर भर जाता है वो
अपने किसी टूटे हुए से ख्वाब में
हर रोज जिंदगी की लत ढूंढता है।

Monday, September 14, 2009

हिन्दी दिवस पर ...


हर शब्द पर हम क्षुब्ध है
हर वाक्य पर हम मौन है
ये कैसी आधुनिकता है ?
जहाँ आत्मसम्मान गौण है।
हर क्षण में अंतर्द्वंद है
अपनी भाषा के सवाल पर
मर चुकी है सोच
ख़ुद से आशा के ख़्याल पर
अभिव्यक्ति की परतंत्रता का
आख़िर अपराधी कौन है ?
क्यों गर्व है आख़िर हमें
विदेशी शब्दों की धार पर
हम कैसे युद्घ जीत सकते है ?
औरों की तलवार पर
भ्रमित सी मानसिकता का
ये विक्षिप्त सा दृष्टिकोण है ।

ये प्रयास भर है ....सार यही है ..."निज भाषा उन्नति अहै"....आप सभी को हिन्दी दिवस की शुभकामनायें

Thursday, September 10, 2009

सच..


कोई ख्वाब,मन को छू रहा है
और कोई आंखों से छलक रहा है।
कोई सोना चाहता है जिंदगी भर
और कोई सदियों से जग रहा है।
अलग है सबकी अपनी कहानी
कहीं है सूखा,कहीं है पानी
किसी के लिए समन्दर भी कम है
और कोई बूंदों में ही छक रहा है।
किसी के लिए रंग,नई सुबह में ढल रहे है
और किसी के लिए धूप में जल रहे है
कोई उजाले की तलाश में है
और कोई दिन को आंखों से ढक रहा है।
कोई सपनों को सींचता है
और कोई बस आँखें मींचता है
कोई दे रहा है आकार इनको
और कोई छुपाकर रख रहा है।
इस जिंदगी के है इतने किस्से
कि चाहे जितने भी कर लो हिस्से
जो भी मिलेगा,कम ही लगेगा
तभी तो हर कोई,सिसक रहा है।
जितनी भी कर लो सपनो से सजावट
कभी कम न होगी इसकी कड़वाहट
तुझे एहसास हो गर,मीठेपन का
समझ ले तू कुछ और चख रहा है।

Thursday, September 3, 2009

१००वीं रचना ..."धार"


जिंदगी जब भी बनकर दिल की कलम चलती है
ऐसा लगता है जैसे एहसास से गुजरकर हवा नम चलती है
बिखर जाते है उस बयार में कोरे पन्ने
आसूँओ से भरकर एक नई नज़्म चलती है ॥
थक जाती है उस एहसास तक जाते जाते
खाली हो जाते है जैसे जिंदगी के खाते
और वक्त के साथ उस अधूरे से हिसाब में
ये नज़्म,सोच पर बनकर सितम चलती है ॥
क्या तो छोड़ दे ये दिल और क्या बाँटें ?
लफ्ज़ चुभते है जैसे दिल में बनकर कांटें
तेज़ हो जाती है जब सोच वक्त की धार पर
ख़ुद पे ज्यादा और औरों पर कम चलती है ॥
दर्द को मिलती है जिसमें वाह-वाही
कभी लहू के रंग में रंग जाती है स्याही
दिख जाता है ऐसे ही किसी दिल का ज़ख्म
और किसी के लिए ये बनकर मरहम चलती है ॥


आप लोगो से मिले प्यार और आर्शीवाद के लिए मैं आभारी हूँ !!
पारुल.... :)