![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgklkHbLkZo2rXnLNvuQmkVIhZxWfKn5tlauEUtEZKx6OMR5Iw8XIZBm5T8nA2Kxgces-dD_dzxlWqX_z6qd9AstUBgL-cI4K8OU7B-XXDaHn8X9JPApcrNyT1BqolNF4rTgj5XFJTQkpk/s200/alone.jpg)
एक ही मुश्किल थी
कि उसकी कोई हद नहीं थी
चाह थी मुद्दत से
मगर वो 'जिद' नहीं थी #
देर तक बैठा था
तन्हाई की फांक लिये
इश्क रूहानी था
पर वो अब तक मुर्शिद नहीं थी #
रोज ख़्वाबों को, बैठ
चाँद सा गोल करता था
फिर भी कोई रात स्याह सी
अब तलक 'ईद' नहीं थी #
गढ़ आया था जेहन में
यूँ तो कई कलमे
इबादत के लिये न मंदिर था
और कोई मस्जिद नहीं थी #
एक ही मुल्क था दिल का
एक ही था अपना मजहब
फासले थे मगर
फिर भी कोई सरहद नहीं थी #
नहीं मालूम,क्यों उसमें
मैं खुद को ढूंढता था
यही लगता था
कि वो औरों सी मुल्हिद नहीं थी #
('मुल्हिद-वो जो समझता है रब हो भी सकता है और नहीं भी ')