Monday, September 20, 2010

ख्वाहिश..!


अपनी ख़ामोशी में भर लूं
तुम्हारी हिचकी
या कि तुम्हारे मन का
हर ज़ख्म चुरा लूं ।
वो जो चुभते हैं
होले-होले
यूँ भी कई रंग घोले
उन आंसूओं को ही
हरदम चुरा लूं ।
कब तक रहूँगा ऐसे
और तुमसे कहूँगा कैसे
क्यों न बिन कहे ही
तुम्हारे उतारे हुए
वो तन्हा से मौसम चुरा लूं ।
मैं पूछता फिरता हूँ
जहाँ भर में
तुम्हारे लफ़्ज़ों का ठिकाना
मौका मिले तो फिर
कोई तुम सी नज़्म चुरा लूं ।
वो अल्हड सी हसरत
जो अक्सर गोल हो जाती है
मिल जाये उसकी मिटटी
तो गीली सी हर कसम चुरा लूं ।
आती नहीं क्यों तुमको
नीली नींद की फिर एक सुबकी
इस फिराक में कि तुम सोओं
और मैं तुम्हारी जिन्द सी कलम चुरा लूं ।

Monday, September 13, 2010

एक ख्याल ....


तेरी करवट के तले
मैंने अपना चाँद रखा था
तेरी नींद के सिरहाने से
उसको बाँध रखा था।
उन बेचैन बेमियादी सी रातों में
जब आँखों का काजल सुलगता था
कहीं उस नूर में
मेरा वो चाँद भी चमकता था
एक रोज किसी ख्वाब के छिलके पे
फिसलेगा अम्बर भी
ये पक्के तौर पर मैंने यूँ भी मान रखा था ॥
बात उस रोज अपने चाँद को टांकने की थी
जिद फिर रात की सिलवटों में झाँकने की थी
मन से उधडी हुई एक नज़्म के धागे रखता था
नया बुनने की हसरत लिये ही बस जगता था
कुछ रेशमी से धागे धूप के,पलकों में उलझे थे
नाम जिनका इन्ही आँखों ने 'सांझ' रखा था ॥
मैं छोड़ आया था कुछ किस्से
इसी सांझ के मुहाने पर
बड़ा ही हल्ला था उस रोज
समन्दर बसाने पर
मैंने जब गौर से देखा अपनी उसी नज़्म को
तो उसमें लिपटा अम्बर से उतरा पहला चाँद रखा था ॥

Wednesday, September 8, 2010

एक-दूजे के लिये..!



न जाने क्यों मैं पड़ गया
मन के हेर-फेर में
सोच ने फिर एक नया आशियाना बुना
मैंने देखा रहकर वहां भी तन्हा
मगर तन्हाई ने फिर एक फ़साना बुना !
मैंने खुद से भी देर तक बात की
बस यूँ ही नहीं ऐसे एक रात की
सुबह तलक भी जैसे तैसे रुका
फिर ख़्वाबों ने नया ठिकाना बुना !
फिरता रहा इधर-उधर मन का खाली घर लिये
खुद से होकर बेखबर,तेरी खबर लिये
फिर कहीं से तुमने आकर दी दस्तक
इश्क ने मेरा खोना और तेरा पाना बुना !
कैसे भीगे दोनों उस बरसात में
दोनों की ख़ामोशी थी जब साथ में
मैं अब तक भूला नहीं वो मंजर
जब लफ़्ज़ों ने दिलों का शामियाना बुना !
देर तक एक-दूजे में दो मन जले
दूर तक संग जब हम दोनों चले
जैसे वक़्त की बंदिशों से परे
हमने जिंदगी सा कुछ 'सयाना' बुना !
ढूंढता था तुम्हे मन की चिठ्ठी लिये
या कि खुद को,तेरे रंग की मिट्ठी लिये
वो जगह जहाँ अब तलक दोनों ही नहीं थे
दोनों ने ही एक-दूजे का आना जाना बुना !