
मैं हैरां भी हूँ और परेशान भी हूँ ये देखकर
मेरे सपनों के रंग बदलता है कौन?
मेरी तन्हा सी,अनजानी सी आरज़ू में
आखिर बेपरवाह सा मचलता है कौन?
हाँ!मैंने भी भरी थी कभी उडान
न जाने किसके हाथों कटी थी पतंग
मैं अपने हर गम में जब तन्हा ही हूँ
तो मेरे आंसूओं में आखिर यूँ पलता है कौन?
मैं आज तक न समझा
क्या सही और क्या गलत
पर जब भी मिलता हूँ खुद से
खुद को पाता हूँ और सख्त
फिर भी इस पत्थर से दिल में
अनजाना सा आखिर पिघलता है कौन?
चुभ रहा है मेरी आँखों में क्यों ये आइना
नहीं भाता मुझको आखिर क्यों मेरा होना
मैं ढूंढता हूँ आखिर क्यों खुद से ही दूर
किसी अनजाने वक़्त का कोना
धीरे धीरे से हर पल,हर लम्हे में
मुझे,खुद में इतना खलता है कौन?
मैं बैठा हूँ क्यों लफ़्ज़ों से परे
जी रहा हूँ क्यों पल ख़ामोशी भरे
या कि ये ख़ामोशी भी है कहीं दबी
इसको भी मैं न सुन पाया कभी
जिंदगी के इस अनकहे सूनेपन में
फिर यूँ आवाज़ करके चलता है कौन?