बात पुरानी है ...
जब ख्वाब बहुत ही छोटे थे
और हम उन पर लगाते मन के गोटे थे
फिर कैसे वो चमकते थे
और हम कितने खुश होते थे
बात पुरानी है ...
जब हो जाते थे खट्टे
नींबू के अचार में
मिश्री की डलियाँ घोलते थे
नानी-दादी के प्यार में
बात पुरानी है ...
हो जाते थे जब हम ढीले
वो कस जाया करती थी
पर जब हम उसमें पतंग से उलझते थे
वो गुपचुप हंस जाया करती थी (माँ)
बात पुरानी है ...
अक्सर हम जागते रहते थे
रातें थककर सो जाती थी
चरखे वाली नानी से
यूँ बातें कुछ हो जाती थी
बात पुरानी है ...
कैसे हम गोल गोल
चाँद के चक्कर लगाते थे
वो हमें कहानी कहता था
और हम वहीँ सो जाते थे
बात पुरानी है ...
कैसे हम सूरज को उठता देख लेते थे
उसकी गर्माहट पर
ख्वाहिशों की रोटी
सेंक लेते थे
बात पुरानी है ...
कैसे हम जिद करके
हवाओं से दौड़ लगाते थे
कौन किस से है आगे
बस ये होड़ लगाते थे
बात पुरानी है ...
कैसे मन की मिटटी को
बारिश में गीला करते थे
फिर कैसे सपनों से
उसका रंग नीला करते थे
बात पुरानी है...
कुछ भी पाने की जिद में
हम कैसे खुद को खोते थे
रह जाते थे खुद छोटे
और आंसूं मोटे मोटे थे
बात पुरानी है...
ऐसा लगता था तब शायद
जिंदगी जादू की पुडिया थी
मन के कुछ खिलोनों में
ये भी प्यारी सी गुडिया थी
बात पुरानी है...
उन यादों के आगे जैसे
अब भी सब कुछ बौना है
वो होता तो जीवन था
ये होना भी क्या होना है................
When emotions overflow... some rhythmic sound echo the mind... and an urge rises to give wings to my rhythm.. a poem is born, my rhythm of words...
Wednesday, February 24, 2010
बात पुरानी है....
Sunday, February 21, 2010
शायद
तेरे लिये रात गुजारने को
खाली करके पलकों के कोने रखता ॥
गर मालूम होता तुम आओगे
मैं ख्वाबों के बिछोने रखता ॥
रह जाता चाहे खुद भूखा
देता तुम्हे जरुर रुखा-सूखा
प्यास तेरी बुझ जाती शायद
जो भरके मन के दोने रखता ॥
मिल जाती गर पहले ही चिठ्ठी
बचा लेता थोड़ी सी मिटटी
तुम आते जब,बीज जिंदगी के
शायद तुम में बोने रखता ॥
शायद कुछ गम तेरे होते
और कुछ आंसूं मेरे होते
सब कुछ तसल्ली से पोंछ-पांछ कर
सुबह तक सोने को रखता ॥
Thursday, February 18, 2010
एक सवाल ..
वो वक़्त-बेवक्त भागता है अपने ही पीछे
उसको इस जुनूं का असर चाहिए
शायद कम पड़ गया है जिंदगी का आशियाँ
जो अब ईट-पत्थरो का भी घर चाहिए ॥
भूलता जा रहा है वो इस भूल में
जिन्दगी से अपने सारे रिश्ते
बस सोचता रहता है यही
पैसे से भरनी है साँसों की किश्तें
खो आया है कहीं अपनों की दुनिया
बस अब तो ख़्वाबों का शहर चाहिए ॥
फिरता है दर दर खुद को तन्हा लिये
सपनों से भी सुकून का सौदा किये
ऐ दोस्त इतना ही कहूँगा मैं
तकाजे के लिये भी उमर चाहिए ॥
इस ख्वाहिश में सब कुछ बीत जायेगा
हो सकता है जिंदगी से तू जीत जायेगा
मगर हार जायेगा अपना ही वजूद
क्या तुझको खुद की नहीं कदर चाहिए ॥
Tuesday, February 16, 2010
जिरह .
करने लगा जिरह अपने मन से
न जाने क्या क्या जिंदगी को बकने लगा
किस तरह जुदा हुआ खुद से मालूम नहीं
मगर रोज अब अपनी राह तकने लगा ॥
मर रहा था रोज तिल तिल जहर को पिए
सोचता था क्यों बाकी हूँ और किस लिये
और जब याद आई फिर अपनी ही
तो लबों पे वजूद सा कुछ चिपकने लगा ॥
ख़ामोशी आई थी लफ़्ज़ों की कतरन लिये
और एक सिसकता सा मन लिये
क्या क्या नहीं था उस ख़त में
जिसको था मैं अपने लिये रखने लगा ॥
करता था जब कोई सवाल खुद से
जवाब जैसे हो जाते थे बुत से
इस कदर अजनबी हो गया था खुद से मैं
कि आईने में भी था भटकने लगा ॥
जब लगा तन्हा है जिंदगी का सफ़र
मन बनने लगा जैसे रेत का घर
एक एक करके करता रहा क़त्ल
और फिर उन ख्वाहिशों को कफ़न से ढकने लगा ॥
Friday, February 12, 2010
इश्क !(प्रेम दिवस पर विशेष )
मेरा तेरा इश्क देखकर
देखो सूरज जलता है ॥
अपनी ख्वाहिशों के झुरमुट में ही
कहीं रोज ये दिन सा पिघलता है ॥
मैं शब्दों की फिरकी बनाकर
जब भी तुम पर फेंकता हूँ
तेरे मेरे बीच में ये
पगली सी हवाओं संग फिरता है ॥
प्यार भरे लफ़्ज़ों में अक्सर
ख़ामोशी को सुलगाता है
और फिर अपनी ही साजिश में
बनकर राख सा उड़ता है ॥
मैं जब भी तुमसे अपने
ख्वाबों की बातें कहता हूँ
तुमको यूँ पाने की खातिर
वो रोज रातों से लड़ता है ॥
और फिर वो डूबता जाता है
अपनी ही तन्हाई में
जब हम दोनों के इश्क का चाँद
ख्वाहिशों के अम्बर पर चढ़ता है ॥
कैसे भी करके जाने क्यों
तुम में समाना चाहता है
समझ रहा हूँ आखिर क्यों वो
इतना घटता-बढ़ता है ॥
मैं कागज़ की नाव बनाकर
उसको बचाना चाहता हूँ
और एक वो है जो रोज
सांझ के दरिया में ही गिरता है ॥
(कागज़ की नाव =अपनी भावनाओं से)
Wednesday, February 10, 2010
फितरत!!
जूनून बसता है मेरी आँखों में
सुकून कहीं और है
मैं चुप करता हूँ लफ़्ज़ों को
तो खींचता ख़ामोशी का शोर है
रोज होता है कुछ न कुछ ख्वाबगाह में
मगर मिलता नहीं कुछ सोच की पनाह में
और मुड़ जाता हूँ उन बेचैनियों की राह पर
जहाँ चलता बस कलम का जोर है ॥
शहर दर शहर ढूंढता हूँ मैं जिंदगी का चेहरा
अपने वजूद का शायद उस पहचान से है रिश्ता गहरा
उसको यूँ ही पाने की फितरत में
होती जा रही खुद की जरुरत कमजोर है ॥
एक बार फिर रविश जी के ब्लॉग की कुछ पंक्तियाँ भा गयी
ये प्रयास भर है..किसी भी गलती के लिये माफ़ी चाहूंगी..
Sunday, February 7, 2010
घर !
वो जब कहता था कुछ,मैं सोच में पड़ जाता था
अपने सवाल से वो,मेरे ख्यालों को उमर देता था !
मन के किसी कोने में,जब मैं रहता था चुपचाप
वो मेरी तन्हाई को अपने ख़्वाबों का शहर देता था !
मैं भरता जाता था खुद में समन्दर की तरह
और वो ठहरे पानी में उम्मीद की एक लहर देता था !
मैं अक्सर रहता था जब खुद से बेखबर
वो मुझको,मेरे होने की खबर देता था !
मैं देख पाता नहीं था जब कुछ भी अच्छा
वो मुझको,देखने को अपनी नज़र देता था !
जिंदगी भी जब मुझको समझ न पाती थी
वो मेरे साथ होकर,जिंदगी का असर देता था !
वो खेलता था जब मेरे संग आँख मिचोली
तो जैसे मुझे, मेरे ही खो जाने का डर देता था !
मैं छोड़ देता था जब कभी अपना ठिकाना
वो मुझे हमेशा अपने मन का घर देता था !
Thursday, February 4, 2010
रुक!
आज फिर थोड़ी सी जिंदगी
मन के करघे पे कात लूं ॥
ख्वाहिशों के धागों से
बुनने को फिर कोई बात लूं ॥
बैठे रहे यूँ देर तक
ख़ामोशी के कहकहो में
खो जाये साँसों को ढूँढने
उम्मीद की तहों में
थोडा सा रुक,मन कह रहा है
मैं जिंदगी को भी साथ लूं ॥
आ तो गए है संग हम
इस ख़्वाबों के मेले में
करनी है तुमसे गुफ्तगू
मुझको मगर अकेले में
कोई ख्वाब लेने से पहले
सोचता हूँ बाजार से एक रात लूं ॥
Tuesday, February 2, 2010
मन करता है ....
कुछ कहने का मन करता है
सोच की उन तंग सी गलियों में रहने का मन करता है
वो लिखने का मन करता है
जो शब्दों की अबूझ पहेली है
जिस सोच का कोई अंत नहीं
जिन जज्बों से ये दुनिया खेली है
जो ख़ामोशी से रिस न सकी
उस अनकही में बहने का मन करता है ॥
क्यों आखिर खुद में रहते नहीं
क्यों औरों को जीते है
सच्चाई को ढांपने की होड़ में
हम ख़ामोशी भी सीते है
क्यों नहीं करते खुद का विरोध
क्यों सब सहने का मन करता है ॥
क्यों कोई मसीहा लगता है
हमको परदे के किरदार में
क्यों बिक जाते है जीवन-चरित्र
संवेदनाओं के व्यापार में
अवसाद भरे इस खोखले पन का
अब ढहने का मन करता है ॥
(रविश जी के ब्लॉग से प्रेरित होकर)
Monday, February 1, 2010
विजेता !
थोडा सा तू यकीं रख
थोडा सा एतबार कर
तुझे जिंदगी से हो न हो
मगर तू खुद से प्यार कर ॥
वक़्त ने चाहे कितने भी हो
अँधेरे किये
उम्मीद दिल में जलाये है
रोशनी के कई दीये
रातों का न तू खौफ रख
सुबह का इंतज़ार कर ॥
मुश्किलें भी है जरुर
माना कुछ भी आसां नहीं
कोशिश तो करके देख
होगा तेरे पास क्या नहीं
कुछ कर गुजरने से पहले
यूँ ही न अपनी हार कर ॥
खुद को जीत जाना ही
जिंदगी की जीत है
गर तुझको खुद से प्रेम है
तो जिंदगी से भी प्रीत है
इस प्रीत के संबल से तू
औरों के भी दिल गुलज़ार कर ॥
एक राह कहीं रुक गयी
तो मंजिलें खत्म नहीं
गर होंसला है दिल में तो
मेहनत कभी बेदम नहीं
अपने इसी जुनूं से तू
नया रास्ता इख्तियार कर ॥
तुझे जिंदगी से हो न हो
मगर तू खुद से प्यार कर ................................. ॥
Subscribe to:
Posts (Atom)