Tuesday, October 26, 2010

तुम!


नींद की हथेली पर
एक ख्वाब रख गए थे तुम
या कि मेरी उम्र का
हिसाब रख गए थे तुम!
यूँ भी कुछ नमकीन था
तेरा अनकहा आफरीन था
ख़ामोशी की आह पर
एक किताब लिख गए थे तुम!
हरफ-हरफ जैसे बरस
मैं देर तक जीता गया
जिंदगी के सवाल पर
शायद एक जवाब रख गए थे तुम !
सुलगी तिल्ली रात की
और चाँद जैसे जल उठा
जानता हूँ वो बदरंग हुआ
तो नीला नकाब रख गए थे तुम !

Monday, October 18, 2010

मैं!


जाने कहाँ खुद को रखकर भूला
और ढूंढता रहा फिर,जिंदगी के अज़ाबों में !
याद करता रहा खुद को रातों में जगकर
नहीं पाया जाने क्यों खुद को ख़्वाबों में ?
यूँ मुस्तकिल हो चला
दिल बुस्दिल हो चला
कुछ अपने ही सवालों के जवाबों में !!
कुछ पन्ने थे फट गए
कुछ किस्सों में बंट गए
नहीं मिला मैं खुद को वक़्त की किताबों में !!
मुझे खुद के होने की
जब कोई वजह मिली
मैं खो गया अजनबी से असाबों में !!
और हो गया धीरे धीरे
अपना ही गुनेहगार
उलझता गया सोच के हिसाबों में !!


अजाब- सजा
मुस्तकिल-स्थिर
असाब-कारण



Monday, October 11, 2010

ख़ामोशी!


तुम न आये मगर
ख़ामोशी आकर चली गयी
लफ्ज़ छिपते फिरे
पर वो सब सुनकर चली गयी !
सुना भी क्या इस दिल ने
एक अदना सा फ़साना
जिसमें सिर्फ तन्हाई थी
मुश्किल था तुम्हे पाना
तेरे इंतज़ार में एक अरसे से
मैं एक रात भी न बुन पाई
और वो एक पल में
जिंदगी को ख्वाब बनाकर चली गयी !!
मैं जब तलक थी इस सोच में
तुम क्यों नहीं आये ?
उसने अपने किस्से
यूँ कई बार दोहराए
मैं पूछ न सकी कुछ भी
और वो कहती चली गयी
मेरी चुप्पी पे सवाल उठाकर चली गयी !!