Saturday, April 3, 2010

फिर भी..


ताउम्र जिंदगी से निभाने की सोच लिये फिरते है।
खुद पर खुद ही का बोझ लिये फिरते है॥
ढूंढते है जहाँ भर में
सूरत दिखती नहीं अपनी नज़र में
और आईना दर दर पे रोज लिये फिरते है॥
रहते है खुद से बेखबर से
असलियत मालूम होने के डर से
और जहाँ भर की खोज लिये फिरते है॥
रोज ख़्वाबों में पलते है
खुद को यूँ कई बार छलते है
फिर भी उन्ही आंसूओं की फ़ौज लिये फिरते है॥
घूंट घूंट पीकर भी प्यासे है
उलझी,उम्मीद के धागों में अपनी साँसें है
जाने किस बात की मौज लिये फिरते है॥

37 comments:

दिनेश शर्मा said...

वाह!वाह!वाह!

संजय भास्‍कर said...

behtreen parastuti...

संजय भास्‍कर said...

किस खूबसूरती से लिखा है आपने। मुँह से वाह निकल गया पढते ही।

Ashish said...

Bahut khoob parul.. bahhut khoob :)

Apanatva said...

tumharee rachanae..........tareef ke shavd nahee doond patee............
bemisaal..........
aasheesh aur shubhkamnae..............

nilesh mathur said...

उलझी उम्मीद के धागों में अपनी साँसे है, अति सुन्दर !

अजय कुमार said...

शानदार रचना

Saumya said...

nice one

i wud luv 2 hav ur comments on my poems too
http://fervent-thoughts.blogspot.com

Mansoor Naqvi said...

Adbhut.. shabdon ki sajawat lajawab hai.. badhai.

ताऊ रामपुरिया said...

बेहतरीन रचना.

रामराम.

Amit kumar said...

aapki kalam me bhawnaye hai...

Dev said...

बहेतरीन रचना .......बहुत खूब .

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

पारुल जी!
आपने बहुत सुन्दर रचना लिखी है!
आज चर्चा मंच का शीर्षक इसी को बनाया है-
http://charchamanch.blogspot.com/2010/04/blog-post_03.html

M VERMA said...

सुन्दर रचना है
बेहतरीन

vandana gupta said...

खुद को यूँ कई बार छलते है
फिर भी उन्ही आंसूओं की फ़ौज लिये फिरते है॥
bahut sundar bhavon se saji racha.

Yatish said...

ज़िन्दगी को जब भी कोई एक अनोखे अंदाज मे देखता है तो बहुत सकूँ मिलाता पढ़कर.


कभी अजनबी सी, कभी जानी पहचानी सी, जिंदगी रोज मिलती है क़तरा-क़तरा…
http://qatraqatra.yatishjain.com/

पूनम श्रीवास्तव said...

---------------------------------
khud par khud ka hi bojh liye firte hai.
bahut bahut hi achhi lagi aapki yah kavita.

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

सूरत दिखती नहीं अपनी नज़र में
और आईना दर दर पे रोज लिये फिरते है॥

बहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति ..अच्छा लगा पढ़ना...

दिलीप said...

shabd nahi hain tareef ke liye...aur blog customization me madad karne ke liye dhanyawad.....
http://dilkikalam-dileep.blogspot.com/...check kijiyeg ye naya rang roop aapki salah ka parinaam hai...

दिगम्बर नासवा said...

रोज ख़्वाबों में पलते है
खुद को यूँ कई बार छलते है
फिर भी उन्ही आंसूओं की फ़ौज लिये फिरते है ..

ये तो सच है की आँसू चलते हैं .. पर साथ भी तो निभाते हैं ...
बहुत अच्छी रचना है ...

मनोज भारती said...

उलझी,उम्मीद के धागों में अपनी साँसें है
जाने किस बात की मौज लिये फिरते है॥

उत्तम रचना ... आपकी रचनाएँ स्वयं की छटपटाहट बताती हैं ...???

Anonymous said...

ताउम्र जिंदगी से निभाने की सोच लिये फिरते है।
खुद पर खुद ही का बोझ लिये फिरते है॥...
great.....
kya baat hai...
i wud luv 2 hav ur comments on my blog too........
http://i555.blogspot.com/

zindagi ki kalam se! said...

umda!

kavi surendra dube said...

जिन्दगी की यात्रा भटकाव जैसी
ये अनोखी व्यवस्था बिखराव जैसी

kavi surendra dube said...

जिन्दगी की यात्रा भटकाव जैसी
ये अनोखी व्यवस्था बिखराव जैसी

kavi surendra dube said...

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kavi surendra dube said...

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kavi surendra dube said...

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kavi surendra dube said...

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kavi surendra dube said...

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kavi surendra dube said...

जिन्दगी की यात्रा भटकाव जैसी
ये अनोखी व्यवस्था बिखराव जैसी

kavi surendra dube said...

जिन्दगी की यात्रा भटकाव जैसी
ये अनोखी व्यवस्था बिखराव जैसी

कुश said...

पहली दो पंक्तियों को सौ नंबर..!
बहुत अच्छा लिखा है पारुल

विजयप्रकाश said...

जाने किस बात की मौज लिये फिरते है...ये तीन पंक्तियों की शैली अच्छी लगी.बहुत बढ़िया कविता

डॉ .अनुराग said...

dilchasp.......

डिम्पल मल्होत्रा said...

ताउम्र जिंदगी से निभाने की सोच लिये फिरते है।
खुद पर खुद ही का बोझ लिये फिरते है..ultimate...

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

बहुत सुंदर भाव। सीधे मन में उतर गये।
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