याद है तुम्हे
कभी मेरे जीवन का धागा
तुम्हारी जिंदगी में उलझ गया था !
उधड गया था मैं यकायक
सुलझाने में जब तुमसे खींच गया था !
बिखर गए थे जैसे सारे ताने-बाने
एक दूजे में सिमटे से दो अनजाने
मैं भटक गया था लफ़्ज़ों के फेर में
और तुम कहीं ख़ामोशी के ढेर में
इस बेवक्त की खींचतान में
वो प्रीत भरा ख़त यूँ ही फट गया था !
किस अल्हड़पन से ले रहे थे हम पंगें
उड़कर अपने-अपने मन की पतंगें
एक डोर-दूजी डोर से लिपटने को थी
जैसे हाथ लग गयी थी दबी सी उमंगें
देर तक चलता रहा था ये सिलसिला
और बस फिर नींद के मांझे से मांझा कट गया था !
कभी मेरे जीवन का धागा
तुम्हारी जिंदगी में उलझ गया था !
उधड गया था मैं यकायक
सुलझाने में जब तुमसे खींच गया था !
बिखर गए थे जैसे सारे ताने-बाने
एक दूजे में सिमटे से दो अनजाने
मैं भटक गया था लफ़्ज़ों के फेर में
और तुम कहीं ख़ामोशी के ढेर में
इस बेवक्त की खींचतान में
वो प्रीत भरा ख़त यूँ ही फट गया था !
किस अल्हड़पन से ले रहे थे हम पंगें
उड़कर अपने-अपने मन की पतंगें
एक डोर-दूजी डोर से लिपटने को थी
जैसे हाथ लग गयी थी दबी सी उमंगें
देर तक चलता रहा था ये सिलसिला
और बस फिर नींद के मांझे से मांझा कट गया था !
45 comments:
aur nind ke manjhe se manjha kat gaya...:)
behtareen prastuti..!
मुझे भी छंद लिखना सिखा दें... तुकबंदी मैं भी सीखना चाहता हूँ, कैसे जोड़ा जाता है इसमें... कई बार तो मक्तक या छनिका सी बनती है. पर पूरी कविता नहीं, हालांकि यह आपकी पिछली कविताओं से कमज़ोर हैं पर भाव पक्के हैं/लग रहे हैं...
bade gahre khyaal
रिश्तों के तागे बहुत कच्चे होते है ... ज्यादा खींचतान में टूट जाने का डर रहता है ,,, बहुत खूब पारुल जी
sagar ji k sath main bhi sehmat hu.
इस बेवक्त की खींचतान में
वो प्रीत भरा ख़त यूँ ही फट गया था !
sunder abhivyakti,
abhaar.......
पारुल जी
सादर सस्नेहाभिवादन !
कभी मेरे जीवन का धागा
तुम्हारी जिंदगी में उलझ गया था !
उधड गया था मैं यकायक
सुलझाने में जब तुमसे खींच गया था !
बहुत भावपूर्ण !
जीवन के अनापेक्षित वाकयों का अंतर की नमी के साथ चित्रण ! मन में घर बनाने में समर्थ रचना के लिए आभार !
और बस फिर नींद के मांझे से मांझा कट गया था …
कविता का समापन भी मन को स्पर्श करता है …
एक उत्कृष्ट रचना के लिए साधुवाद !
♥ बसंत ॠतु की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !
♥
- राजेन्द्र स्वर्णकार
बहुत ही सुन्दर और संवेदनशील!
बहुत खूबसूरत कविता /बहुत ही खूबसूरत सोच के लिए आपको बधाई |निरंतरता की उम्मीद के साथ ...........
उधड गया था मैं यकायक
सुलझाने में जब तुमसे खींच गया था !
"अनुपम" compare करना मेरी फितरत नही!
नींद के माझे न जाने कितनी सपनो की डोर काट देते हैं। अच्छे भाव्\ शुभकामनायें।
इतना खुबसूरत की शब्दों में ब्यान करने के बाद भी दिल को सुकून नहीं मिल रहा बहुत ही खुबसूरत अंदाज़ और उतना ही खुबसूरत शब्दों का ताना - बाना |
बहुत बहुत बधाई दोस्त |
संबंध भी धागों की तरह उलझने लगें तो उन्हें खीचने की बजाय सुकून से सुलझाना होता है।
अजीब सा सोंधापन है इस रचना में
इस नज्म में आप एक पूरा भाव लेकर चलीं हैं ....
शुरू से अंत तक .....
बहुत सुंदर .....!!
यकीन मानिये पारुलजी, जब भी अपने में अकेला होता हूं, चाहता हूं हवा के झौंको संग झूमना या फिर स्मृतियों की आगोश में खोना, या किसी प्रेम की स्वप्नील तरंगों में खुद को डूबो देना तो आपकी रचनायें मुझे हरहमेश सराबोर कर दिया करती है। जो खुद के अन्दर खोजता हूं, वो यहां मिल जाता है। बहुत नाजुक होते हैं शब्द और उनके गहरे अर्थ जो मुझे बहला दिया करते हैं। यह रचनाकार की सार्थकता है कि उससे किसी को सुख पहुंच रहा है या कोई अपनी चीज उसकी रचनाओं मे देख रहा है। धन्यवाद दूंगा आपको, क्योंकि मैं सोच सकता हूं किंतु लिख नहीं सकता। और लिखा हुआ मैं यहीं पा जाता हूं।
बहरहाल,"सुलझाने में जब तुमसे खींच गया था !..." में 'खींच' दूर होने संबंधित भी अनुभव हुआ, और वो डोर जो आपस में लिपटी थी, जिसका दार्शनिक भाव यही प्रतीत हुआ कि लिपटना संकेत है छूटने का, कट जाने का..। एक फारसी शे'र याद आ रहा है, जिसका मजमून कुछ इस प्रकार है कि- " दफअतन तर्के तआल्लुक भी एक रुसवाई है, उलझे दामन को छुडाते नहीं यूं झटका देकर..."। खैर...। बहुत अच्छी रचना।
ओफ्फो !! ये नींद भी मुसीबत है !
बड़ी खूबसूरती से लिखी है कविता ,पारुल जी !!
वहां,
उन अलसाए रस्तों के किनारे
सुस्त सा दरिया है कोई.
कभी बचपन में मैंने
वहां कागज़ की इक नाव डाली थी.
सूना है कि,
आज भी वह नाव वहां मद मस्त बहती है
bahut sundar....
bahut khoob.. kaisi hain parul ji..??
खूबसूरत....
सागर से सहमति है.. पिछली रचनाओ से थोडी कच्ची पर भाव पक्के
बड़ी खूबसूरती से लिखी है कविता| धन्यवाद|
बस फिर नींद के मांझे से मांझा कट गया था !
वाह बहुत खूब
लेखन में ताजगी है
सुन्दर भावों से सजी सुन्दर रचना
बधाई / आभार
मैं भटक गया था लफ़्ज़ों के फेर में
और तुम कहीं ख़ामोशी के ढेर में
lafzon ke fer me khamoshi dher ho hi jaati hai...bahut badhiya likha hai aapne..sadhuvaad.
ultimate ji
बहुत खूब ... जिंदगी का टांका उध्द जाए तो सँभालने में बहुत वक़्त लगता है ... दिल के जज्बातों को लिख दिया है आपने ...
बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति.
सलाम.
hmm :)
is silsiley ko aage badhao ab :)
gud one..keep going!!
मांझे से मांझा कट गया...... यह लाइन तो कमाल की हैं.... बहूऊऊऊऊऊऊऊऊऊऊऊऊऊत ही ख़ूबसूरत कविता...........
Regards
लफ्जों के फेर और खामोशी के ढेर में उलझे रिश्तों की दास्ताँ का अच्छा चित्रण है. एक दुसरे को जानने और समझने की प्रक्रिया में कभी बेवक्त ही ऐसी खामोशिओं से हमारा साबका पड़ता है. लेकिन हमारी तलाश कायम रहती है. जिस कवि की कल्पना में जिन्दगी प्रेम गीत है, वह एक प्रेम ख़त फट जाने से और प्रेम ख़त लिखना थोड़ी छोड़ देगा. हाँ बस दर्द गहरा हो तो भरने में वक्त लग जाता है. अच्छी रचना के लिए शुक्रिया
Wah kitane gahri baate hain..!
ending bahut achchi hai.
der se aane ke liye mafi chahunga.
parul ji
bahut hi batreen prastuti jo gahan bhavo ko samete hue hai .
bahut bahut dhanyvaad
poonam
bahut bahut badiya.........mazza aa gaya padh kar.........
आपको एवं आपके परिवार को होली की हार्दिक शुभकामनायें!
dil ke kareeb lagi!
sarahaniy prayas!
soch se uljhna har kisi ke bas ka nahi!
vartika!
यूँ तो रिश्तों की डोर नाजुक होती है पर उलझे बिना सुलझ्ती भी नहीं
sadaive kee bhati choo gayee ye rachana bhee.
ab swasthy me sudhar hai.
No.......new post.... busy schedule?????? hope very soon will see new post...
Regards
bahot achchi lagi.
आदरणीया पारुल जी नमस्ते |लिखने की गति इतनी धीमी क्यों हो गई है |एक पाठक होने के नाते जानने की जिज्ञासा हो रही है |
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