Thursday, October 8, 2009

फितूर.


तंग सा हो चला था मैं फितूर से
कुछ तो थी खलबली जिंदगी में जरुर से
न थी अपनी ख़बर,न रास्तों का पता
माफ़ हो न सकी ख्वाहिशों की खता
ख़ुद को रोका बहुत,ख़ुद को टोका बहुत
हो चले थे ख्वाब भी मजबूर से ।
जिंदगी का कोई भी ठिकाना नही
इस लिए मुझको उस तक जाना नही
मैं बना लूँगा ख़ुद आशियाना कहीं
न चलूँगा ज़माने के दस्तूर से ।
अपनी तन्हाई से जी भी भरता नही
ख़ुद को चाहकर भी मैं याद करता नही
नापता भी नही औरों से फासला
देखता हूँ ख़ुद को भी, तो बस दूर से ।

16 comments:

आमीन said...

अच्छा है,,,

http://dunalee.blogspot.com/

निर्मला कपिला said...

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है शुभकामनायें

ओम आर्य said...

नापता भी नही औरों से फासला
देखता हूँ ख़ुद को भी, तो बस दूर से ।
बहुत ही अच्छी लगी फीतूर की ये पंक्तिया ...... अच्छी रचना !

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

मैं बना लूँगा ख़ुद आशियाना कहीं
न चलूँगा ज़माने के दस्तूर से ।

WOW! beautiful lines........

M VERMA said...

"देखता हूँ ख़ुद को भी, तो बस दूर से । "
खुद को भी दूर से देखने का यह अन्दाज़ पसन्द आया.

अनिल कान्त said...

आपकी कविता बहुत अच्छी होती है

Apanatva said...

soch ka ye dour sheegra hee vida ho jae isee shubhkamna ke sath .

Anonymous said...

sunder rachna

Udan Tashtari said...

अपनी तन्हाई से जी भी भरता नही
ख़ुद को चाहकर भी मैं याद करता नही
नापता भी नही औरों से फासला
देखता हूँ ख़ुद को भी, तो बस दूर से ।


-सुन्दर रचना!!

Mishra Pankaj said...

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है शुभकामनायें

शरद कोकास said...

तुक मिलाने के चक्कर मे आपकी कविता मे लय गडबड़ा रही है । इसे फिर एक बार पढ़कर देखें ।

अर्कजेश said...

भाव अच्छे हैं पर शब्द उनके खांचे में नहीं बैठ रहे हैं कहीं-कहीं

पूनम श्रीवास्तव said...

जिंदगी का कोई भी ठिकाना नही
इस लिए मुझको उस तक जाना नही
मैं बना लूँगा ख़ुद आशियाना कहीं
न चलूँगा ज़माने के दस्तूर से ।

bahut sundar abhivyakti.
Poonam

Sudhir (सुधीर) said...

नापता भी नही औरों से फासला
देखता हूँ ख़ुद को भी, तो बस दूर से

वाह!! अच्छी अभिव्यक्ति.

Anonymous said...

thanx to all o f u

Apanatva said...

itana alagavvad ? wish karatee hoo kshanik hee ho .