Friday, May 30, 2014

या कि...!!


यूँ ही बस कोरा रह जाऊँ
या कि कुछ ज़िन्दगी लिखूँ !
लफ्ज़ लफ्ज़ यूँ बिखरुं
कि अपनी तिश्नगी लिखूँ !
करूं तेरा शहर खाली
या कि हो जाऊँ सवाली
बंजर से पड़े मन में
कोई नीली नदी लिखूँ !
तुझे देखूं किसी भोर में
या कि चाँद के कोर में
अपना गुमनाम सा पता
तुझ पर ही कहीं लिखूं !
वो कुछ कतरे सिरफिरे
जो नींदों में गर आ गिरे
उस पानी से इश्क़ पर भी
तेरा नाम सही लिखूं !
बड़े खामोश है रस्ते
मैं भी कुछ इस तरह चीखूँ
कि अपनी हर एक 'हाँ' पे
मैं बस तेरा 'नहीं' लिखूँ !

21 comments:

Prakash Jain said...

sundar...

ओंकारनाथ मिश्र said...

अच्छी लगी रचना.

Aparna Bose said...

khoobsurat, pyari si kavita

Rahul... said...

बेहद सुन्दर भाव से गढ़ी गयी पोस्ट

Rahul... said...

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Onkar said...

बड़ी कोमल रचना

दिगम्बर नासवा said...

प्रेम के कुछ पल और गहरे लम्हों को गूंथ पर लिखी भावपूर्ण रचना ...

इमरान अंसारी said...

पारुल जी आपको पढना हमेशा अच्छा लगता है | नज्मों में एक जादू सा है आपकी | क्या आप फेसबुक पर भी हैं ?

wordy said...

Kayal hoon!!

Noopur said...

Beautiful....

Kavita Rawat said...

बेहद सुन्दर रचना...

जयकृष्ण राय तुषार said...

सुन्दर कविता

Anonymous said...

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Dr. Tripat Mehta said...

bahut khoob likha hai aapne

अमिताभ श्रीवास्तव said...

देख रहा हूँ ब्लॉग लेखन कम हो चुका है। फिर भी पिछले साल की लिखी आपकी इस रचना को आज देख रहा हूँ तो मेरे लिए एकदम नई है और ताजी। बहुत खूब लिखा है। मैं खुद ब्लॉग को समय नहीं दे पा रहा जिसका अफ़सोस है किन्तु इधर लिखना शुरू किया है और सबको फिर से जोड़ने की तैयारी का प्रयास है। आप लिखा करें -

Unknown said...

बहुत सुन्दर रचना. बधाई

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बस वाह ... बंजर से पड़े मन में नीली सी नदी लिखूं और अंत में तेरी ना लिखूं बहुत खूब

Amrita Tanmay said...

उम्दा ।

संजय भास्‍कर said...

यह पंक्तियाँ बहुत ही अच्छी लगीं