When emotions overflow... some rhythmic sound echo the mind... and an urge rises to give wings to my rhythm.. a poem is born, my rhythm of words...
Saturday, August 28, 2010
मुश्किल
एक ही मुश्किल थी
कि उसकी कोई हद नहीं थी
चाह थी मुद्दत से
मगर वो 'जिद' नहीं थी #
देर तक बैठा था
तन्हाई की फांक लिये
इश्क रूहानी था
पर वो अब तक मुर्शिद नहीं थी #
रोज ख़्वाबों को, बैठ
चाँद सा गोल करता था
फिर भी कोई रात स्याह सी
अब तलक 'ईद' नहीं थी #
गढ़ आया था जेहन में
यूँ तो कई कलमे
इबादत के लिये न मंदिर था
और कोई मस्जिद नहीं थी #
एक ही मुल्क था दिल का
एक ही था अपना मजहब
फासले थे मगर
फिर भी कोई सरहद नहीं थी #
नहीं मालूम,क्यों उसमें
मैं खुद को ढूंढता था
यही लगता था
कि वो औरों सी मुल्हिद नहीं थी #
('मुल्हिद-वो जो समझता है रब हो भी सकता है और नहीं भी ')
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
66 comments:
इस ब्लॉग पर मेरी अब तक की पढ़ी गयी बेस्ट क्रियेशन... फेंटास्टिक
कभी कभी यूँ भी बन जाता है नगमा,
जब 'मजाल' उम्मीद नहीं थी.
इश्क रूहानी था पर वो अब तक मुर्शिद नहीं थी
बहुत दिनों बाद कुछ अपने मिजाज़ का पढ़ा. बहुत खूब ! रूहानियत है, दीन है, दुनिया है..
इतनी गहराई यूँ ही नहीं आती, ऐसे ही लिखते रहिये.
एक ही मुल्क था दिल का
एक ही था अपना मजहब
फासले थे मगर
फिर भी कोई सरहद नहीं थी #
Aapko padhte hue lagta hai, jaise pathak ke jajbaat, aapki lekhni ke madhyam se vyakt ho rahe hain...bahut bahut prasansneey... saadhuvaad.
इबादत के लिये न मंदिर था
और कोई मस्जिद नहीं थी
एक ही मुल्क था दिल का
एक ही था अपना मजहब
बहुत अर्थपूर्ण .....
पारुल जी ,
यूँ खूबसूरत अल्फाज़ लिए उतरेगी
ये आपकी नज़्म उम्मीद नहीं थी .....
बधाई ....!!
बहुत खूब .....!!
hey ram... itne din baad aisi kavita padhi hai jo khud ba khud wah! nikaal de!!
wah-wah...
:)
Beautiful!! Vaise urdu ka course kahan se kar rahi ho... :)
पारुलजी,
एक होता है बिल्कुल शालीनता से दिल में उतर जाने वाला कलाम। और एक होता है दिल में उतरकर दिमाग में छा जाने वाला कलाम। कमाल यह है कि आप दोनों में लाज़वाब हैं।
हां कभी कभी हद न होना मुश्किल खडी कर देता है। बिखर जाता है सबकुछ। जो ज़िद में बन्ध सकता था, मुद्दत की चाह को पा सकता था मगर उसके नसीब में तन्हाई ही रह जाती है। जब इश्क़ रुहानी है तो चांद बुनकर ईद का ख्वाब भी देखा जा सकता है। अफसोस जरूर है कि कलमे ही गढ सकता है वो। शायद वही मस्ज़िद या मन्दिर में तब्दिल हो जाये??? ऐसे में लाज़मी है मुल्हिद होना। बहरहाल..आपकी रचना में डूब सा
**
एक ही मुश्किल थी
कि उसकी कोई हद नहीं थी
चाह थी मुद्दत से
मगर वो 'जिद' नहीं थी #......
***
दिल छु लिया इन पंक्तियों ने
पारुल जी आपको तब से पढता आया हूँ जब से ब्लॉग बनाया है ...
सारी थकान दूर हो जाती है आपकी रचनाएँ पढ़ के ...
बहुत खूब सूरत लिखती है आप ..
अल्ला करे आप ऐसे ही लिखती रहें ...
पारुल जी
बहुत ख़ूबसूरत !
अच्छा लिखा है आपने …
चाह थी मुद्दत से
मगर वो 'जिद' नहीं थी
यानी चाह अगर ज़िद बन जाती तो जिसे चाहा , उसे पाना संभव था …
अच्छा फ़ल्सफ़ा है यह तो ,पारुल जी !
डूब गया हूं आपकी कविता में …
बहुत ख़ूब !
शानदार !
वाह ! वाह !! वाऽऽऽऽऽह !!!
बहुत बहुत शुभकामनाएं …
- राजेन्द्र स्वर्णकार
क्या बात है , लाजवाब और बेहतरिन रचना लगी ।
bahut khub....
behtareen rachnaon mein se ek.....
नहीं मालूम,क्यों उसमें
मैं खुद को ढूंढता था
यही लगता था
कि वो औरों सी मुल्हिद नहीं थी
पारुल हमेशा की तरह लाजवाब रचना......
एक ही मुश्किल थी
कि उसकी कोई हद नहीं थी
चाह थी मुद्दत से
मगर वो 'जिद' नहीं थी #
बहुत खूबसूरत पंक्तियाँ ...
और ईद नहीं थी ...क्या ख्याल है ..वाह ..बहुत सुन्दर ..
बहुत दिनों के बाद ब्लॉग को खोल पाया हूँ,खोलते ही यहाँ आना हो गया....
और पढ़ कर ब्लॉग खोलने का उद्देश्य जैसे पूरा होता सा जान पड़ा....
बहुत सुन्दर है जी बहुत.....
कुंवर जी,
पारुल....बहुत कुछ समझना चाहता था मैं....गोकि मेरे समझने की कोई हद ही ना थी....
मैं जिन्हें बाँध लेना चाहता था अर्थों में....उन शब्दों के बिखरने की कोई जद ही ना थी....!!
फिर भी कोई रात स्याह सी
अब तलक 'ईद' नहीं थी
waha kya likha hai
dil ko chu lete ho aap
बहुत सुन्दर और लाजवाब रचना लिखा है आपने जो काबिले तारीफ़ है!बधाई!
रोज ख़्वाबों को, बैठ
चाँद सा गोल करता था
फिर भी कोई रात स्याह सी
अब तलक 'ईद' नहीं थी # बेहतरीन पंक्तियां।
एक ही मुल्क था दिल का
एक ही था अपना मजहब
फासले थे मगर
फिर भी कोई सरहद नहीं थी # -------- इधर काफ़ी समय बाद आपके ब्लाग पर आया----लेकिन बहुत बेहतरीन रचना पढ़ने को मिली।
Sahitya sirf khoobsurat shabdon ka khel nahi hai, sandesh mahatvapurna hai.. jo sahitya dono kasoutiyon par khara nahi utarta wo adhura hai.. aapko dil se badhai.. aapki kalam ki chamak din-b-din badhti hi jaa rahi hai.. ham sab aapko sahitya ke sheersh muqaam par dekhno ko betaab hain.. aur wo din door nahi..
कुश की टिपण्णी पढने से पहले मैं भी यही सोच रहा था....अब क्या कहूँ कुश पहले ही कह चुका है
parul ji aapki sabhi rachnayein mantr mugdh kar dene waali hain
Bhai...........mazaa aagya. Badi sunder gzal likhi hai aapne...
aapse tareef sun kar bahut hi achha laga .... i m new in this bloggin world ... i went through ur work too... u r amazing i must say that...
एक बेहद उम्दा पोस्ट के लिए आपको बहुत बहुत बधाइयाँ और शुभकामनाएं !
आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है यहां भी आएं !
सुन्दर प्रस्तुति...
उर्दू के ख़ूबसूरत अल्फाज़ों को कितनी खूबसूरती से पिरोया है.... वैरी डिसेंट एंड नाईस कविता....
गहरी बात।
एक ही मुल्क था दिल का
एक ही था अपना मजहब
फासले थे मगर
फिर भी कोई सरहद नहीं थी
पारूल...
क्या लिखूं यही सोच रहा हूं
तुम तो सबको खामोश करते जा रही हो
जानदार.. शानदार और धारधार भी
भाषा पर जबरदस्त मेहनत.
बधाई... औऱ बधाई..
wow parul...aaj hee wapas aai ..inti pyaari nazm maza aa gaya
सुंदर रचना.
नहीं मालूम,क्यों उसमें
मैं खुद को ढूंढता था
यही लगता था
कि वो औरों सी मुल्हिद नहीं थी ..
इतनी खूबसूरत नज़्म ... हर अल्फ़ाज़ बरसों की बात लिए ... दिल की कशमकश को बखूबी उतरा है इस नज़्म में ...
too gud
vartika!
vakai kalam nikhar rahi hai..
well done :)
मंगलवार 31 अगस्त को आपकी रचना ... चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर ली गयी है .कृपया वहाँ आ कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ....आपका इंतज़ार रहेगा ..आपकी अभिव्यक्ति ही हमारी प्रेरणा है ... आभार
http://charchamanch.blogspot.com/
एक ही मुश्किल थी
कि उसकी कोई हद नहीं थी
- हदों में बंधना अपनी विशालता खोना है.
रोज ख़्वाबों को, बैठ
चाँद सा गोल करता था
फिर भी कोई रात स्याह सी
अब तलक 'ईद' नहीं थी #
laazwaab ,bahut badhiya man ko janch gayi .
यूँ तो आपकी कविता हमेशा अच्छी ही होती है..पर personaly मुझे ये अब तक की बेहतरीन कविता लगी आपकी..कुछ भी जबरन थोपा नहीं गया बहुत सहज सी है...
प्रभावशाली और सुंदर रचना , बधाई ।
"एक ही मुल्क था दिल का
एक ही था अपना मजहब
फासले थे मगर
फिर भी कोई सरहद नहीं थी"
सुभानाल्लाह ................शायद इस एक लफ्ज़ ने ही सब कुछ कह दिया होगा | उर्दू पर आपकी पकड़ की दाद देता हूँ ....गुज़ारिश है कभी कोई ग़ज़ल पोस्ट करें ........जज़्बात .......पर आपकी प्रतिक्रिया के लिए आपका आभारी हूँ ..........और आपसे इल्तिजा है अगर आपको मेरा कोई ब्लॉग पसंद आया तो कृपया उसे फॉलो करके इस नाचीज़ का हौसला बढ़ाये...........एक बार फिर शुक्रिया|
मेरे ब्लॉग हैं -
http://jazbaattheemotions.blogspot.com/
http://mirzagalibatribute.blogspot.com/
http://khaleelzibran.blogspot.com/
http://qalamkasipahi.blogspot.com/
एक भावपूर्ण रचना !
"रोज ख़्वाबों को, बैठ
चाँद सा गोल करता था
फिर भी कोई रात स्याह सी
अब तलक 'ईद' नहीं थी"
khoobsurat hai Parul ji :)
नहीं मालूम,क्यों उसमें
मैं खुद को ढूंढता था
यही लगता था
कि वो औरों सी मुल्हिद नहीं थी #
Hi Parul,
Your writing is majestic, very innocent and pure like first drop of rain... keep going stay the pure soul you are...
Regards,
Rajat
इबादत के लिये न मंदिर था
और कोई मस्जिद नहीं थी #
एक ही मुल्क था दिल का
एक ही था अपना मजहब
फासले थे मगर
फिर भी कोई सरहद नहीं थी #
नहीं मालूम,क्यों उसमें
मैं खुद को ढूंढता था
यही लगता था
कि वो औरों सी मुल्हिद नहीं थी #
kaash aaj bhii yah sambhav ho paata
एक ही मुल्क था दिल का
एक ही था अपना मजहब
फासले थे मगर
फिर भी कोई सरहद नहीं थी
ये चार लाईन खास पसंद आयी, बहुत बढ़िया
aap apni abhvyakti ke dwara apne ki achha likhne ke record dhwasht kar deti ho....bahut khoobsurat!!
JAI SHRI RADHE KRISHNA !!
so beautiful..amazing word chosen :)
इबादत के लिये न मंदिर था
और कोई मस्जिद नहीं थी
एक ही मुल्क था दिल का
एक ही था अपना मजहब
bahut sundar
एक ही था अपना मजहब
फासले थे मगर
फिर भी कोई सरहद नहीं थी #
नहीं मालूम,क्यों उसमें
मैं खुद को ढूंढता था
यही लगता था
कि वो औरों सी मुल्हिद नहीं थी #
बहुत ख़ूबसूरत लाजवाब और बेहतरीन रचना लगी ।
आपको एवं आपके परिवार को श्री कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनायें !
ढेरोँ शुभकामनाएँ ।गोकुल रहना मथुरा रहना या रहना बरसाने जी।मीरा की आँखोँ से पढना क्रिष्न भक्ति के माने जी ।
लो जी भटकते-भटकते आ पहुंचा पढ़े-लिखों की दुनिया में!
बेशरम! फ़िर समझ में नहीं आयी!!!
कोशिश तो कर!!!
कैसे करूं?? कविता का नाम ही 'मुश्किल' है!!!!!
हा हा हा....
पारुल जी, पागल है.... बुरा मत मानना!!!
आशीष
--
अब मैं ट्विटर पे भी!
https://twitter.com/professorashish
पारूल जी..थोड़ा व्यस्त हो गया . सो आपकी इतनी बढ़िया रचना इतनी देर से पढ़ पाया..सुंदर अभिव्यक्ति के लिए बधाई..
गढ़ आया था जेहन में
यूँ तो कई कलमे
इबादत के लिये न मंदिर था
और कोई मस्जिद नहीं थी #
एक ही मुल्क था दिल का
एक ही था अपना मजहब
फासले थे मगर
फिर भी कोई सरहद नहीं थी #
नहीं मालूम,क्यों उसमें
मैं खुद को ढूंढता था
यही लगता था
कि वो औरों सी मुल्हिद नहीं थी #
क्या बात है! वाह!!वाह!!! बहुत सुन्दर !!
लाजबाव ।
behtreen .......
A Silent Silence : Mout humse maang rahi zindgi..(मौत हमसे मांग रही जिंदगी..)
Banned Area News : Shankar Roy Directs Movie On Footballm
बहुत अच्छा लिखा है...एक एक लफ्ज़ अपनी याद छोड़ता सा लगा. लंबे अरसे तक याद रखने वाली नज़्म.
बधाई...और देरी के लिए क्षमा.:)
बहुत ही नाज़ुक ख़यालत की रवानी लिये एक सशक्त रचना के लिये आप मुबारक बाद के मुस्तहक़ हैं। पर इसमें की एक पंक्ति मुझे व्याकरण के लिहाज़ से बेहद खटक रही है।"इबादत के लिये न मंदिर था और कोई मस्जिद नहीं थी" देख लीजियेगा।
बेहद ख़ूबसूरत...हर एक शब्द..
अच्छी प्रस्तुति। आभार !
नहीं मालूम,क्यों उसमें
मैं खुद को ढूंढता था
यही लगता था
कि वो औरों सी मुल्हिद नहीं थी
नज़्म बहुत बहुत ..... प्रभावी है.... काफिये इस तरह इस्तेमाल किये हैं उनसे अलफ़ाज़ नए रंग रूप में चमक दमक रहे हैं.... इस नज़्म में तो सारे अल्फ़ाज़ जिंदा, बल्कि सांस लेते हुए महसूस हो रहे हैं....तारीफ करने का हौसला मुझमे नहीं है.....!
अहमद फराज का एक शेर आपके लिए रँजिश ही सही दिल को दुखाने के लिए आ आ फिर से हमेँ छोण के जाने के लिए आ।आप सबका शुक्रिया जो मेरा ब्लाग पढ रहे हैँ किताबोँ पत्रिकाओँ से अलग अनुभव है यहाँ
bahut sundar ..vaah,,
Post a Comment