
बस आज फिर यूँ ही वो बचपन याद आया
किसी मासूम सी जिद पे सिसकता मन याद आया!!
कैसे जिए वो पल अपने ही ढंग में
रंग लिया था जिन्दगी को जैसे अपने ही रंग में
आज देखा जो खुद को,वो सब याद करके
ऐसा लगा कोई भूला सा दर्पण याद आया!!
वो रंग-बिरंगी सी सपनों की किश्ती
वो भूली सी रिमझिम की भोली सी मस्ती
कहाँ छोड़ आया वो मिटटी के खिलोने
परियों की कहानियों से अपनापन याद आया!!
पलता हर पन्ना,जिंदगी थी कोरी
मन की कडवाहट में गुपचुप थी लोरी
मैं खोज रहा था जब अपने जीवन का आकार
तो मुझको बस वो हाथ का 'कंगन' याद आया!!
चारो ही तरफ जैसे तब बिखरे थे उजाले
मुझसे लिपटे अँधेरे को अब कौन संभाले
कैसे भूल गया मैं वो अम्बर का पहाडा
मुझे चरखे वाली नानी का संग याद आया॥
आज सब कुछ याद करके जैसे एक सवाली था मैं
बहुत कुछ पाकर भी जैसे खाली था मैं
जिंदगी को भूल,खुद को कैसे जी रहा था मैं
बहुत रोया मैं,जब मुझे अपना जीवन याद आया!!
(कंगन-माँ का कंगन)