Tuesday, January 19, 2010

उलझन!




तू जूझ रहा था जब अपनी ही उलझन से
मैं आ उलझा तुझ में खुद इस मन से
अश्क खुद-ब-खुद आँखों से उलझ रहे थे
धीरे धीरे उम्मीद के सब दीये बुझ रहे थे
गांठें कई पड़ गयी थी इस खीचतान में
उभर रहे थे जाने कितने झोल जबरन से !
ये गांठें कहीं न कहीं दोनों को चुभ रही थी
ख़ामोशी चुपचाप दर्द की पहेली बूझ रही थी
मैं झाड़ रहा था ख्वाबों को,शायद कुछ मिल जाये
पर दूर कर न पाया सिलवटें तेरी शिकन से !
उलझते जा रहे थे जैसे सोच के सब धागे
कुछ भी तो नहीं था कोरे ख्यालों से आगे
मैं साफ़ कर न पाया अपने अक्स पे पड़ी गर्द
और खामखा उलझता जा रहा था दर्पण से !
महसूस हो गया था ख्वाहिशें कहीं कमजोर थी
टूटी हुई मन से मन की डोर थी
सून रहा था मैं दिल के उस शोर को
जहाँ आह खुद उलझ रही थी चुभन से !


11 comments:

Apanatva said...

good change picture is also nice along with your beautiful poem.

अनिल कान्त said...

मन की गाँठ...

अनुराग राजपूत said...

really nice work

रावेंद्रकुमार रवि said...

दर्द से किनारा करके भी रचा जा सकता है!
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"सरस्वती माता का सबको वरदान मिले,
वासंती फूलों-सा सबका मन आज खिले!
खिलकर सब मुस्काएँ, सब सबके मन भाएँ!"

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क्यों हम सब पूजा करते हैं, सरस्वती माता की?
लगी झूमने खेतों में, कोहरे में भोर हुई!
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संपादक : सरस पायस

Parul kanani said...

hardik aabhar!

लोकेन्द्र विक्रम सिंह said...

वाह री उलझन
तू ऐसे ही उलझाएगी.....

सुंदर रचना....

पूनम श्रीवास्तव said...

पारुल जी
आपके उल्झन को पढ कर सच्मुच मै भी ऊलझ नो मै खो सी गई। धुन्ध फ़िल्म का एक गन याद आ रहा है।
ऊलझन सुल्झे ना रस्ता सुझे न॥प
000 जौंउ कहां मैं,जाउं कहां पर, रस्ते तो ।ढूद ने पर …॥मिल ही जाते हैं,इन्ही सुन्दर भावनओं के॥साथ।धन्यवाद
पूनम

Parul kanani said...

dhanywaad!!

Sanjeet Tripathi said...

दरअसल, मन जब उलाझता है कहीं तो ख्याल-ओ-ख्वाब से यथार्थ तक चंद ही सवालात ही उसे खाए जातेहैं, चाहे वह सवाल महक एक के ही हो या किसी युगल के या फिर युगल दिल के……
शुभकामनाएं

Anonymous said...

Good one!!

wordy said...

well done!