Friday, April 24, 2009

बेखबर...


ये किस हसरत से, मैं तुम तक चला आया था
मेरा कुछ भी नही तेरे पास,शायद न समझ पाया था ॥
जिंदगी के सूनेपन में,कुछ नही था मेरे मन में
मैं ख़ुद तक भी नही पहुँच पाया था अभी जीवन में
मेरा पता मुझको ही मालूम न था,फिर
अपनी तलाश में,मैं तुम तक ही क्यों पहुँच पाया था?
तेरे वजूद में कभी, अपनी ही तलाश थी
अपने होने का था एहसास,क्योंकि तुम पास थी
दूर तुमसे हुआ था या कि ख़ुद से
बस खाली था जिंदगी से,जब तुमने 'सब' लौटाया था ॥
इस बात से भी बेखबर था कि 'सब' में क्या था?
जो भी पाया था,यूं लगता था कहीं खो गया था
मैं आख़िर क्यों इतना दूर ख़ुद से हो गया था
और क्यों तुम्हे इतने करीब लाया था?
छोड़ ख़ुद को,ऐसे कैसे मैंने तुमको जीया था
हाँ!ये दर्द मैंने ही अपनी जिंदगी को दिया था
किस तरह से मिटाता चला गया ख़ुद को
कि मेरी परछाई में भी बस तेरा ही साया था॥

7 comments:

Dr. Ravi Srivastava said...

पारुल जी, नमस्कार!

आज मुझे आप का ब्लॉग देखने का सुअवसर मिला।
वाकई आपने बहुत अच्छा लिखा है। आप की रचनाएँ, स्टाइल अन्य सबसे थोड़ा हट के है....आप का ब्लॉग पढ़कर ऐसा मुझे लगा. आशा है आपकी कलम इसी तरह चलती रहेगी और हमें अच्छी -अच्छी रचनाएं पढ़ने को मिलेंगे. बधाई स्वीकारें।

आप के अमूल्य सुझावों और टिप्पणियों का 'मेरी पत्रिका' में स्वागत है...

Link : www.meripatrika.co.cc

…Ravi Srivastava
E-mail: ravibhuvns@gmail.com

अनिल कान्त said...

Kis tarah se mitata chala gaya khud ko ....waah bahut sundar bhaav hain

mehek said...

ek alag kashish hai nazm mein,bahut sunder.

Vinay said...

उलझी हुई ज़िन्दगी-सी कविता है

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तख़लीक़-ए-नज़र
चाँद, बादल और शामगुलाबी कोंपलें

समयचक्र said...

bahut badhiya rachana .

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

समर्पण के भाव जगाते सुन्दर शब्द।
पारुल जी आप अच्छा लिख रहीं हैं।
बधाई।

अनिल कुमार वर्मा said...

दूर तुमसे हुआ था या कि ख़ुद से
बस खाली था जिंदगी से,जब तुमने 'सब' लौटाया था ॥

बढ़िया रचना...बधाई।