
अब भी उलझी है नींद में
तुम्हारी उँगलियों की थपकी
अब भी मन के बंजर में
कोई तुम सा रहता है
तुम बीती रातों के चाँद ही सही
अब भी अम्बर के सूनेपन में
तुम्हारा दरिया बहता है !
अब भी आँखों के धागे
बनाकर ख़्वाबों की किश्ती
डूब जाते है तुम में
खोजते है वही बस्ती
जहाँ मिटकर रोज ही
बनता हूँ मैं
वहां यादों का कारवां
अक्सर ही ठहरता है !
वो कुछ हरफ जो अब भी
होंठो से चिपके रहते है
मेरी ख़ामोशी को
तेरी ग़ज़ल कहते है
और तन्हाई जैसे
तेरी महफ़िल हो जाती है
मेरा वजूद हर रोज ही
ऐसे तुझको पहरता है !
यही होता है बस
जब भी खुद को बुनता हूँ
कोई भी लिबास हो
रंग तेरा ही चुनता हूँ
और हो जाती है
फिर एक उम्र धानी सी
तुझको तरसती जिंदगी की
हर साँस पानी सी
और मेरा वजूद पल पल
बूँद-बूँद तुमसे भरता है !