
ऐ जिंदगी! बस इतना बता दे मुझको
तू उम्मीद की जगह क्यों मुझे में भूख बोती है
मैं चाहकर भी सुकून से सो नहीं पाता
रात का चाँद भी मुझको लगता 'रोटी' है ॥
झांकता हूँ जब भी खुद में
चूल्हे सा जलता हूँ
रोज इस भूख की खातिर
अपने आंसूओं पे पलता हूँ
रोज तू मुझे में फिर ऐसे ही भूखी सोती है ॥
रोज ही बनता हूँ मैं मिटटी पर गोले
कि शायद धूप में सिककर ये रोटी हो ले
और मैं बैठकर इसको फिर जी भर खाऊँ
रोज ये आस क्यों आखिर मुझको होती है ॥
या तो मिल जाये कहीं से मुझको दो दाने
या बता दे मुझको उन ख़्वाबों के ठिकाने
एक लम्बी नींद लग जाये वहां शायद मुझको
न पूछ पाऊँ फिर तुझसे क्यों मुझे ढोती है ॥