
मेरे जहन में रोज एक कत्ल होता है
रोज एक ख्वाब सदियों की नींद सोता है ।
समझ पाता नही,वो मेरे करीब आता क्यूँ है ?
मेरे ज़मीर को चुपके से जगाता क्यूँ है?
ख़ुद को देखकर,ख़ुद से नफ़रत और बढ़ जाती है
आइना रोज मेरी सूरत पे रोता है।
रोज मिलता भी हूँ ख़ुद से,यूं भी छुप छुप के
रोज मरता भी हूँ,यूं ही ख़ुद में घुट के
और फिर जिंदगी का कातिल बन के
ये जहन रोज मुझको ऐसे ही खोता है।
ये रोज मुझमें जिंदगी का जहर घोलता है
मेरी खामोशी को जब भी ये खोलता है
मेरी आवाज को मेरी ही मिटटी में दबाकर
न जाने रोज ही ये क्या बोता है?