Sunday, February 7, 2010

घर !


वो जब कहता था कुछ,मैं सोच में पड़ जाता था
अपने सवाल से वो,मेरे ख्यालों को उमर देता था !
मन के किसी कोने में,जब मैं रहता था चुपचाप
वो मेरी तन्हाई को अपने ख़्वाबों का शहर देता था !
मैं भरता जाता था खुद में समन्दर की तरह
और वो ठहरे पानी में उम्मीद की एक लहर देता था !
मैं अक्सर रहता था जब खुद से बेखबर
वो मुझको,मेरे होने की खबर देता था !
मैं देख पाता नहीं था जब कुछ भी अच्छा
वो मुझको,देखने को अपनी नज़र देता था !
जिंदगी भी जब मुझको समझ न पाती थी
वो मेरे साथ होकर,जिंदगी का असर देता था !
वो खेलता था जब मेरे संग आँख मिचोली
तो जैसे मुझे, मेरे ही खो जाने का डर देता था !
मैं छोड़ देता था जब कभी अपना ठिकाना
वो मुझे हमेशा अपने मन का घर देता था !

42 comments:

Unknown said...

मन के किसी कोने में,जब मैं रहता था चुपचाप
वो मेरी तन्हाई को अपने ख़्वाबों का शहर देता था !

bahut achha likha hai apne....
badhai..

Harshvardhan said...

nice poem..... aapkeblog par mera pahli baar aana hua.. achcha laga.. bas lekhan jaari rakhiye..........

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

इतने प्यार से वो कुछ कहता था
गोया हर्फों से बोसे लेता रहता था !!
मैं भी कहना चाहता था उससे कुछ
और वो मेरे ही मन की कह देता था !!
मेरे भीतर ही निकलता था इक चाँद
और मैं उसे अक्सर चूम लेता था !!
मेरे आस-पास ही बहती थी नदी
मैं तो बस यूँ ही बहता रहता था !!
मैं सोचता था कि उससे कुछ कहूँ
और फिर सोचता ही रहता था !!
पता नहीं क्यूँ मेरे आँगन में "भूत"
"गाफिल"बनकर फिरा करता था !!

निर्मला कपिला said...

वो खेलता था जब मेरे संग आँख मिचोली
तो जैसे मुझे, मेरे ही खो जाने का डर देता था !
मैं छोड़ देता था जब कभी अपना ठिकाना
वो मुझे हमेशा अपने मन का घर देता था !
बहुत सुन्दर शुभकामनायें

Parul kanani said...

wah bhootnaath ji.. :)

मनोज भारती said...

एक मन को छुने वाली कविता ... बहुत-बहुत बधाई ।

sanjay vyas said...

फिलहाल बधाई.कई पंक्तियाँ भीतर 'ग्रो'करती हैं.

Ashish said...

अपने सवाल से वो,मेरे ख्यालों को उमर देता था !...
वो मेरी तन्हाई को अपने ख़्वाबों का शहर देता था !

waah... sabhi panktiyan umda hain...

vivek said...

antim panktiyan kamaal ki hain,wo jab chhod deta thha thhikana ...ohho appne mery ankhen bhigo di...parul kuchh kavita aapki bahut achhi hain ,,..mera man hai ki unko compose kar ke (musical) record karun ..main music composer hun....reply kijiyega..www.rangdeergha.blogspot.com. am vivek

डिम्पल मल्होत्रा said...

मैं अक्सर रहता था जब खुद से बेखबर
वो मुझको,मेरे होने की खबर देता था !
main jab bhi uske khyaal me kho sa jata hun,
wo khud bhi baat kare to bura sa lage mujhe.

miracle said...

aapke khyaal ki panktion ka jabaab nahi...pehali dafa aana hua aapke blog par..aur achchi abhiyakiti padne ko mil gyi..fursat main kabhi hamre blog par bhi dastak de...

सुशीला पुरी said...

तू किसी ट्रेन सी गुजरती है ,
मै किसी पुल सा थरथराता हूँ .

Rohit Singh said...

वाह पारुल वाह
कहीं रात बुन रहीं हैं आप, कहीं रात उधार ले रहीं हैं…कहीं कुछ कहने को मन करता है..कहीं खोखले पन को ढहाने की तैयारी में हैं आप....कहीं खुद से प्यार की सीख देती...कहीं आपकी खामोशी कई बाते कर रहीं हैं....कहीं उलझन सुलझाने की कोशिश.......मान गया...एक कविता पढ़ी और फिर एक साथ फरवरी की सारी कविता पढ़ डाली... सही में पारुल आप भावनाओं का सीधा, सरल चित्रण किया है..आपने

कडुवासच said...

मैं अक्सर रहता था जब खुद से बेखबर
वो मुझको,मेरे होने की खबर देता था !
...बेहद प्रभावशाली रचना,प्रसंशनीय!!!!

मधुकर राजपूत said...

जब है था में बदल जाए तो कसक बन जाता है। इसमें काश जुड़ जाता है, तो और टीस होती है। एक मिसरा याद आया कि,
उसकी महफ़िल से जो उठ अहले वफ़ा जाते हैं,
ता नज़र काम करे रू बक़फ़ा जाते हैं।
मुत्तसिल रोते ही रहिए तो बुझे आतश-ए-दिल,
एक दो आंसू तो और आग लगा जाते हैं।
वक़्त खुश है उनका कि जो हमबज़्म हैं तेरे,
हम तो दरो दीवार को अहवाल सुना जाते हैं।
एक तो मैं हूं बीमारे ज़ुदाई आप ही तिस पर,
पूछने वाले जुदा जान को खा जाते हैं।
आपकी हर रचना में नई उमंग और आस होती है।

सागर said...

शुरूआती दिन हैं!!!!

Parul kanani said...

aap sabhi ka hardik aabhar!

अनिल कान्त said...

कुछ पंक्तियाँ वाकई बहुत अच्छी हैं

Ashish said...

अपने सवाल से वो,मेरे ख्यालों को उमर देता था !

waah waah waah....

और वो ठहरे पानी में उम्मीद की एक लहर देता था !
waah ji waah...

वो खेलता था जब मेरे संग आँख मिचोली
तो जैसे मुझे, मेरे ही खो जाने का डर देता था !
waah waah waahhhhhhhhhhh

rajesh singh kshatri said...

bahut sundar....

अलीम आज़मी said...

bahut khubsurat andaaz hai aapka likhne ka... aapki har rachna apne aap me ek se badhkar ek hai bahut gazab ka likhti hai ... mere paas alfaaz nahi hai kaise aapki tareef karu... agar karu bhi alfaaz kam pad jaayege ... lekin likhne ka andaaz fabulous hai ... waqt mile aap hamare blogs par aakar apni tipanniyon se do chaar karei aapke comments inspire karegi aage likhne ki .... shukriya
http://aleemazmi.blogspot.com/

संजय भास्‍कर said...

बहुत सुंदर और उत्तम भाव लिए हुए.... खूबसूरत रचना......

Parul kanani said...

dhanywaad!!

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

ममत्व से ओत-प्रोत
इस कविता को पढ़वाने के लिए आभार♥3

RAJNISH PARIHAR said...

एक मन को छुने वाली कविता..!!!शुभकामनायें.
!!!

Dev said...

बहुत खूब लिखा आपने ....

सदा said...

पारूल जी, मेरे ब्‍लाग पर आने का बहुत-बहुत आभार, आपके आने से मुझे भी इतनी सुन्‍दर रचना पढ़ने के लिये मिली, हर पंक्ति बहुत कुछ कहती हुई,
यह पंक्ति बहुत ही अच्‍छी लगी,
ठहरे पानी में उम्मीद की एक लहर देता था !
बधाई के साथ शुभकामनायें ।

दिगम्बर नासवा said...

मैं अक्सर रहता था जब खुद से बेखबर
वो मुझको,मेरे होने की खबर देता था ...

बहुत ही खूबसूरत शेर ...... प्रेम के कोमल एहसास समेटे नाज़ुक रचना है .........

Parul kanani said...

thanx to all of u

दिनेश शर्मा said...

बहुत खूब !

शेरघाटी said...

nice!!

गंगा सहाय मीणा said...
This comment has been removed by the author.
प्रज्ञा पांडेय said...

bahut hi khubsoorat ... tum sushila ki fan hui aur vahan tumhen dekha toh ham tumhaare fan ho gaye

गंगा सहाय मीणा said...

वो अमूर्त है या मूर्त, कुछ पता नहीं चल रहा. छायावादी भावबोध का समय चला गया. एक बार इस कविता को उस व्‍यक्ति के एंगल से पढकर देखिए जिसके पास रहने को वास्‍तव में घर नहीं है.

वाह, सब लोग तारीफ पे तारीफ किये जा रहे हैं.

Kishore Ajwani said...

कविता पढ़े ज़माना हो गया था। थैंक यू फिर से कविता से प्रेम जगाने के लिए।

Unknown said...

वो खेलता था जब मेरे संग आँख मिचोली
तो जैसे मुझे, मेरे ही खो जाने का डर देता था !

पंक्तियों को पढ़कर लगता है कि दिल से निकली भावनाओं को शब्दों मे पिरोकर काव्य रुपी हार का एक शानदार नमूना प्रस्तुत किया गया है. पर था से बोध मे गंभीरता आ जाती है. इन भावनाओं का पता है के समय हो जाता तो सही था.

पारुल जी बहुत ही उम्दा रचना.

आपको और आपकी कविता को बधाइयाँ

गंगा सहाय मीणा said...

आपकी कविताओं का लक्ष्‍य क्‍या है, पारुल जी जरा स्‍पष्‍ट करिए.
आश्‍चर्य है लोग बदलाव की मांग करती कविताओं की बजाय आपकी छायावादी भावबोध की अमूर्त कविताएं पढ रहे हैं और 'तारीफ' कर रहे हैं. खैर...

जनता की कविता पढने के लिए यह ब्‍लॉग देखें- http://revolutionarysongs.blogspot.com/

Ashish said...

कविता का लक्ष्य? ह्म्म्मम्म॥ सवाल कुछ समझ नहीं आया वैसे ..पर क्या कविता का लक्ष्य होना जरुरी है? हो तो अच्छा है न हो तो और भी अच्छा है॥ लक्ष्य दायरा बनाता है, चाहरदीवारी खड़ी करता है.. कविता की विधा अलग है, उसकी तासीर दूसरी है। कविता भावनाओ का प्रवाह है, it is more about abstract ideas, more about free flow of mind and feelings, more and more abstract, more and more free.... well contemplated thoughts could serve a good "lakshya".. but they have to be less and less rhythmic, less and less poetic... poem is a rhythm, true poem mirrors the deep feelings and yes instead of just the humming sound, its expressed in few words... yes, feelings could be "krantikari" but not necessarily...
छायावाद एक दौर भर नहीं है और न हो सकता है... वह कविता की आत्मा है, जो हमेशा रहेगा, वैसे भाषा ने दूसरी विधाएं दी हैं गहरे "विचारों" के सम्प्रेषण के लिए। आप गद्य को अपना सकते हैं, पर कविता को लक्ष्य के साथ बांधना न्याय नहीं होगा॥ न कविता के साथ, न भाषा के साथ....
सभी के विचारों का स्वागत है...

Bandmru said...

wah! wah! wah!wah! wah! wah!wah! wah! wah!wah! wah! wah!wah! wah! wah!wah! wah! wah!wah! wah! wah!wah! wah! wah!wah! wah! wah!wah! wah! wah!wah! wah! wah!wah! wah! wah!wah! wah! wah!wah! wah! wah!wah! wah! wah!wah! wah! wah!..........

सामरिया said...

जो समझता है कि कविता का कोई लक्ष्‍य नहीं होता है, उसके जीने का भी कोई लक्ष्‍य नहीं होता. वह यूं ही जिये जा रहा है. उसका जीना निरर्थक है. इस 'असार' संसार में जो भी काम हो रहे हैं, उनका कोई न कोई लक्ष्‍य है. कोई चाहे यह कहता रहे कि जिन्‍दगी का कोई लक्ष्‍य नहीं होता, तब भी वो हर काम लक्ष्‍य के तहत ही करता है. इस वक्‍त आप भी एक लक्ष्‍य के तहत ही काम कर रहे हैं. और वो लक्ष्‍य है- हरेक सही काम से दूरी बनाकर बस केवल भावनाओं के संसार में बहते रहना.

गंगा सहाय मीणा said...

सही कहा सामरिया जी. लोग कविता को भावनाओं का प्रवाह कहकर उसका दायरा स्‍चयं सीमित कर दे रहे हैं. साहित्‍य का लक्ष्‍य बदल चुका है. अब साहित्‍य मनबहलाव की चीज नहीं. साहित्‍य के उद्देश्‍य के बारे में प्रेमचंद ने 1936 में 'भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ' के प्रथम अधिवेशन में अपने अध्‍यक्षीय वक्‍तव्‍य में स्‍पष्‍ट कर दिया- ''साहित्‍य समाज और राजनीति को मशाल दिखाते हुए चलने वाली सच्‍चाई है.''

इसके बाद हमारा प्रगतिशील साहित्‍य आया. बताने की आवश्‍यकता नहीं कि प्रगतिशील धारा के बाबा नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल आदि कवियों ने कविता की सामाजिक जिम्‍मेदारी को अपनी कविताओं के माध्‍यम से स्‍पष्‍ट कर दिया. बाद में धूमिल, रघुवीर सहाय आदि ने उसे आगे बढाया.

बिना लक्ष्‍य के कविता लिखना उसी तरह है जैसे निरर्थक जीवन जीना.

गंगा सहाय मीणा said...

'घर' - कुछ बेहतरीन कविताओं में


कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये

यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिये

न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिये

ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिये

वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिये

जियें तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिये

-दुष्‍यंत कुमार

मयस्सर = उपलब्ध ; मुतमईन = संतुष्ट ; मुनासिब = ठीक




लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में
तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में
-बशीर बद्र