Thursday, November 26, 2009

होंसला..


किस उम्मीद की हद तक उस बंजर को जीयें
आख़िर कब तक उस गुजरे मंजर को जीयें
दर्द तेरा न शायद कभी समझ पाएं हम
और ख़ुद को भी तो कैसे ये समझाएं हम
जाने वाले चले गए,न अब लौट पायेंगें
फिर कब तक हम तेरी पथरायी सी नज़र को जीयें ?
न खफा हो तू ख़ुद से और न मुझ से जुदा हो
ऐसा करने से क्या हासिल,ऐसा होने से क्या हो
चल साथ मिलकर हम अपनी जिंदगी को भूला दे
जो गया है अचानक,उसकी खातिर उसकी उमर को जीयें ।
कुछ ऐसा करें,वो जहाँ भी हो बस मुस्कुराये
उसकी शहादत बस एक याद बनकर न रह जाए
उसकी हर ख्वाहिश पूरी कर ख़ुद में उसको पा लें
न कि बस उसको खो देने के डर को जीयें ।

ये पंक्तियाँ उन बेनाम जांबाजों के लिए जो आज हम सबके बीच होकर भी नही है
और उन लोगो के लिए जिनके दिलों में वो आज भी कहीं है...!!
ये उन लोगो के लिए जिनकी आँखें आज भी नम है
और उन लोगो के लिए जिनको आज भी "अपनों को" खो देने का गम है !!
ये लिखना भी बहुत आसान है और कहना भी आसान है
पर आज जिस मुश्किल से गुजर रहे है ये लोग,क्या उस मुश्किल में रहना भी आसान है?
एक सवाल हम सबके लिए...(ये तस्वीर उस मासूम की जिसने नरीमन हाउस में अपने माता-पिता को खो दिया)

Wednesday, November 25, 2009

२६/११ ...एक संकल्प !




ये वक्त की पुकार है
इस पर क्यूँ ,किसी का गौर नही ।
कह रहा है वक्त ,ये चीख कर
अब २६/११ और नही ।।
ना याद कर आँसू बहाओ
ना और ख़ुद को पीर दो ।
हो सके तो बुलंद कर लो आवाज
फैली ख़ामोशी को चीर दो ।
क्यूँ आज सब लोगो के दिल में
उस रोज जैसा शोर नही।।
कह रहा .....अब २६/११ और नही ।।।
तुम जलाओ अपने मन का दीया
ताकि जीवन की लौ जल उठे ।
जो डूबे पड़े है ख़ुद में ही
वो साथ होकर चल उठे ।
कह दो ये सारे विश्व से
अब हम पहले से कमजोर नही ।।
कह रहा .....अब २६/११ और नही ।।।
आजाद अपनी सोच है
आजाद अपनी साँस है ।
क्यूँ करे किसी की गुलामी हम
ना हमे किसी से कोई आस है ।
ये देश एक जनतंत्र है
किसी एक नेता का कोर नही ।।
कह रहा .....अब २६/११ और नही ।।।
ना उस रोज गुजरे हादसे को
और तू गमगीन कर ।
तू बना ख्वाबों का इन्द्रधनुष
और इस अम्बर को रंगीन कर ।
तू मिटा दे सबके मन से उस रात का अँधेरा
और बता दे ये गर्व से कोई ऐसी रात नही जिसकी भोर नही ।।
कह रहा .....अब २६/११ और नही ।।।
तू रोज अपनी जिंदगी से
नया जज्बा ले,नई सीख ले ।
तू मांग सब अपने आप से
औरों से ना कोई भीख ले ।
तू ख़ुद अपना भाग्य-विधाता है
वक्त के हाथ में तेरी डोर नही ।।
कह रहा .....अब २६/११ और नही....
और नही............

Monday, November 23, 2009

दरकार ! (२६/११)पर विशेष !!!!



बोझिल सा मन ढलता नही
अब किसी आकार में !
ढोता हूँ एक बोझिल सी सोच
जिंदगी के सार में !
क्या कहें किसी को ,क्या लिखें ?
नारे लगाये या चीखे
लगता नही वो बात है पहले सी
अब शब्दों की धार में !
मैं जी रहा हूँ ख़ुद को ही
या ये "चीज़" कोई और है
मैं देखता हूँ चिथड़ी जिंदगी
यूँ भी रोज के अखबार में !
जो रोज अपने व्यक्तित्व पर
जी भर राजनीति करे
उसका भरोसा क्या कि
वो आईने से भी प्रीती करे
जिसने कभी सुनी नही
अंतर्मन की आवाज
आख़िर क्या कर रहा है वो
इस देश की सरकार में !
सदियों से संभाली आन को
वो लम्हों में लूट जाते है
वो बरसों सजा पाते नही
यहाँ पल में अपने छूट जाते है
वो लगाकर एक चिंगारी
राख कर देते है देश
और मैं परवाह करता हूँ बस इतनी
मेरा घर न हो कहीं इस कतार में !
वर्तमान ही यहाँ जब
भूखा नंगा दिखता है
एक रोटी के मोल में
देश का भविष्य बिकता है
आंखों से उतार ले तू
धुंधले सपनों की परत
कुछ नही रखा है यूँ भी
भूखे सपनों की दरकार में !

Thursday, November 12, 2009

अस्तित्व


जो मैं ख़ुद में नही पाता कभी
वो तुम में नज़र आता है
मेरा होना,तेरे होने से
जैसे भर जाता है ।।
मैं छूकर तुम्हे जैसे महसूस करता हूँ ख़ुद को
और सोचता हूँ तुझसे, मेरा
ये कैसा नाता है?
तू अनजाने में ही
मेरी तन्हाई से लड़ता है
मन को बल सा मिलता है
जब तू हाथ पकड़ता है
मैं तेरी छोटी छोटी उँगलियों में उलझ जाता हूँ
तू मेरी हर बड़ी मुश्किल को सुलझाता है ।।
ये ऐसा क्यों है,वो वैसा क्यों है
जब तू पूछता है
मेरा जीवन जैसे
हर सच से जूझता है
मैं तुझको बहलाने की कोशिश में लग जाता हूँ
या कि शायद तू ही मुझको बहलाता है ।।
तू जिद करता है,रोता है आंखों को मींचता है
मेरे मन के किसी प्यासे से सपने को सींचता है
बाँध रंग-बिरंगें गुब्बारे से अपने मन की डोर
तू जैसे मेरी ख्वाहिशों को पर लगाता है ।।
तू अपनी बात से मेरी खामोशी को यूं तोलता है
ऐसा लगता है जैसे तू मेरे मन की बोलता है
तेरे "पा" कहने में ,मैं पा जाता हूँ सब कुछ
और ये एक शब्द ही मेरा अस्तित्व कह जाता है ।।










Thursday, November 5, 2009

हाँ !


जिंदगी अपनी हद में बड़ी हताश सी है
जैसे हसरत कोई सदियों से बस 'काश' सी है ॥
ख्वाब,कहाँ किसी का होंसला बुलंद करते है
ये तो बस जब चाहे,आंखों को बंद करते है
अब तो मन को भी जैसे उजालों की आस सी है ॥
ख़ुद को ख़ुद ही न अगर समझें,तो फिर कौन जाने ?
अक्स मिल जाए कहीं अपना तो लोग पहचाने
मुझे हर आईने में अपनी ही तलाश सी है॥
आज तक जाना नहीं क्या सुकूँ हैं खुदा होने में
हाँ !मगर बहुत तकलीफ होती है ख़ुद से जुदा होने में
इसलिए शायद अब भी मुझको इंसां बने रहने की प्यास सी है ॥

Sunday, November 1, 2009

लोग


नशा जिंदगी का अभी उतरा नही शायद
वक्त के साथ लोग सिर्फ़ अपने पैमाने बदल रहे है
खत्म नही हुई है अब तलक जिंदगी की प्यास
लोग जरुरत पड़ने पर मयखाने बदल रहे है ॥
ये किस जुस्तजू में क़ैद होकर रह गया है दिल ?
छलकते जाम क्या टूटे,संग बह गया है दिल
आज बदनाम सा होकर के रह गया इश्क
किसने सोचा है आख़िर क्यों इस तरह दीवाने बदल रहे है ?
नशा इतना है कि लोग ख़ुद से भी बेखबर से है
बनाकर सपनों का आशियाना,जिंदगी से बेघर से है
यही डर है कोई पूछे न उनसे,उनका ही पता
सब बेसब्र से अपने अपने ठिकाने बदल रहे है ॥
अगर पूछो इन लोगो से कि कहां है जिंदगी ?
ये बस कह देते है कि बेवफा है जिंदगी
मगर सच क्या है,किसने की है असलियत में बेवफाई
जानते है ये लोग तभी जीने के बहाने बदल रहे है ॥