Saturday, September 28, 2013

हाँ कुछ....


वो कुछ खामोशी के टुकड़े
पड़े है इस तरह उखड़े
कहानी एक सदी सी है

ज़ुबान जैसे नदी सी है!
यूँ ही बनती-बिगड़ती है
कभी जो दिल पे पड़ती है
कहीं आढी-कहीं टेढ़ी
चलो कुछ जिंदगी सी है !
तिकोने दिन बरसते है
उन्ही बातों पे हंसते है
कि जिनमें बेरूख़ी सी है
हाँ कुछ बेखुदी सी है!
वो हिस्से भी सुनहरे है
जो हम दोनो ने पहरे है
नही यूँ ही चमकते है
दिलों में रोशनी सी है!

Friday, September 20, 2013

रोज़!!



तुम रोज़ के रोज़ वही होकर के
खफा करते हो
क्यों बदलते नही?
वही होकर के भी क्या करते हो!
बस बार बार ये कहना कि
तुम नई लगो
इसका कोई फ़र्क नही
कि ग़लत लगो या सही लगो
मुझसे शिकवा ही तुम बेवजह करते हो !
ये कैसी ज़िद है तुम्हारी
मैं अपना वजूद उतार दूँ
खुद से ही अजनबी होकर के
मैं तुमको प्यार दूँ
मेरी एक ना पे तुम अपनी
'हाँ' की रज़ा करते हो !

क्या मायने नही रखता
हमारा साथ होना
क्यों ज़रूरी है?
दूर रहकर रोज़ मुलाकात होना
बेमतलब ही तुम इश्क़ को सज़ा करते हो !
छोड़ देते हो अपने वादे
बेज़ुबान चाँद पर
एक ज़िंदगी सा
इंतज़ार सांझ पर
दफ़न होकर के रह जाती हूँ
तुम में ही कहीं
रफू,तुम रोज़ ही
खामोशी की सबा करते हो !