Tuesday, June 30, 2009

गुजारिश..


दिन बेचैन सा था,रात जागी सी थी
नींद आंखों से बहुत दूर भागी सी थी
किसी अजनबी सी ख्वाहिश को लिए,फलक के तले
मैं कोशिश में थी,जिंदगी की कोई बात चले॥
मैं फुर्सत में थी,ख़ुद से रु-ब-रु सी थी
ख़ुद से गुफ्तगू की पूरी जुस्तजू सी थी
बस एक भय लिए चली जा रही थी
कि कहीं ऐसा न हो,वहां मुझे कुछ न मिले॥
मुक्त होना चाहती थी,हर बंधन से
मिलना चाहती थी खुलकर जीवन से
जोड़ना चाहती थी ख़ुद से नया रिश्ता
छोड़ना चाहती थी सारे शिकवे-गिले॥
चाहती थी जिंदगी से नए सिलसिले
बुनना चाहती थी कुछ सपने नीले
जीना चाहती थी ऐसा लम्हा
जहाँ ख़ुद के लिए वक्त की कमी न खले॥
सोच सब कुछ,आज आंसूं भी छलके हैं
पर जैसे वो आज किसी भी खुशी से ज्यादा हल्के है
सब कुछ पाने भर से जो नम पलकें है
यही गुजारिश है न जेहन में फिर कोई आंसूं पले॥

न डूबे!!


देख! तेरे आंसूओं से कहीं किनारा न डूबे
नम से ख्वाबों में रात का कोई तारा न डूबे !!
मुझे ख़बर है कईं रोज से तुम सोये नही हो
थक गए हो इतने कि कई रोज से रोये भी नही हो
भर गया है किसी हद तक तेरे मन का समन्दर
याद रखना!कहीं इसमें तेरा कोई प्यारा न डूबे !!
चाँद भी देख रहा है सब कुछ बादलों की ओट से
रात सिहर रही है टूटे ख्वाबों की चोट से
चांदनी झिलमिला रही है फिर भी तुझ में
देख!तेरे दिल को रोशन करता ये नजारा न डूबे !!
मुझे अपना समझ,दिल की दिल से बात होने दे
मुझे तन्हा न कर,बस अपने साथ होने दे
बना ले मेरे दिल को अपनी कश्ती
ये प्यार तेरा मेरा फिर दोबारा न डूबे!!
समेट लेने दे आंसूओं को पलकों की कोर से
भरोसा कर, न होगी कोई गलती मेरी ओर से
देख सकता नही जिंदगी को यूं छलकता
है कोशिश यही कोई ख्वाहिश बेसहारा न डूबे!!

Friday, June 26, 2009

बिन पानी सब सून!


जिंदगी यूं भी न जाने कब से नम है
फिर भी बरसों से प्यासा सा अब तक मेरा गम है
मेरे आंसूं ही गर न काम आ सके मेरे
तो सोचता हूँ बस यही,कहाँ ये जिंदगी खत्म है ?
जल रहा हूँ ख़ुद में,सोच की ये कैसी तपिश है ?
मर रहा हूँ ख़ुद में,मन में ये कैसी खलिश है?
सुना है सूख रहे है कहीं वक्त के दरख्त
और एक मेरा ही समन्दर होता नही कम है।
एक ये फलक,जिसकी नीली चादर है खाली
प्यासी,बंजर सी धराको जिसने बनाया है सवाली
क्यों जिंदगी से कुछ आसूं चुरा नही लेता ?
और क्यों नही बन जाता वक्त का मरहम है?
किसी के आंसूं,रिमझिम बूँदें बन जाए गर
कितनों की प्यास बुझा दे,ये आस की लहर
मेरा गम भी प्यासा न रह जाए तब शायद
ये देखकर कि आज तो खुशी का मौसम है।

Monday, June 22, 2009

एक आंसूं


वो नम कर देता है सब कुछ
कभी चिंगारी सा जलता है
वो एक आंसूं लम्हा दर लम्हा
मेरे जेहन में पलता है॥
रोज वो दर्द बोता है
या ख़ुद एक दर्द होता है
चुभता है जेहन में
और मुझको खलता है॥
मैं खाली सा हो जाता हूँ
उसको जब ख़ुद में पाता हूँ
यूं लगता है जैसे
अन्दर ही अन्दर सब पिघलता है॥
मैं रो भी नही पाता
उसका हो भी नही पाता
और एक वो है जो
हर लम्हा मेरे साथ चलता है॥
न जाने पलकों का दरवाजा
क्यूँ इसी आंसूं से खुलता है ?
सब डूबा सा लगता है
जब वो आंखों में मचलता है॥
आज सोचता हूँ उसको
तो मालूम चलता है
समन्दर में बहुत ढूँढोगे
तो बस मोती ही मिलता है॥

Wednesday, June 10, 2009

फिर...


बस आज फिर यूं ही बचपन याद आया
किसी मासूम सी जिद पे सिसकता मन याद आया॥
कैसे जिए वो पल अपने ही ढंग में
रंग लिया था जिंदगी को जैसे अपने ही रंग में
आज देखा ख़ुद को जब वो सब याद करके
ऐसा लगा कोई भूला सा दर्पण याद आया॥
वो रंग-बिरंगी सी सपनों की किश्ती
वो भूली सी रिमझिम की भोली सी मस्ती
कहाँ छोड़ आया वो मिटटी के खिलोने?
परियों की कहानियों से अपनापन याद आया॥
पलटा हर पन्ना,जिंदगी थी कोरी
मन की कड़वाहट में गुपचुप थी लोरी
मैं खोज रहा था जब अपने जीवन का आकार
तो मुझको बस वो हाथ का 'कंगन' याद आया॥
चारो ही तरफ़ जैसे तब बिखरे थे उजाले
मुझसे लिपटे इस अंधेरे को अब कौन संभाले?
मैले है आज तन से और मन से काले
मुझे चांदनी में चरखा बुनती कहानी का संग याद आया॥
आज सबकुछ याद करके जैसे एक सवाली था मैं
बहुत कुछ पाकर भी बिल्कुल खाली था मैं
जिंदगी को भूलाकर कैसे जी रहा था मैं ?
बहुत रोया मैं,जब मुझे अपना जीवन याद आया॥


कंगन-'माँ का कंगन'

Tuesday, June 2, 2009

पीर!


ये बड़े हो जाने का एहसास था
या कि ख़ुद से परे हो जाने का एहसास था
मेरी जिंदगी में कुछ अजनबी से ख्वाब दस्तक दे रहे थे
ये शायद उनको अपनाने का प्रयास था ॥
वो ख्वाब,जो शायद मैंने न बुने थे
वो ख्वाब जो मेरे लिए किस ओर ने चुने थे
उन्ही अजनबी से ख़्वाबों की भीड़ में
ख़ुद को अजनबी सा पाने का एहसास था॥
ऐसी ही किसी बात से मैं रहती तंग थी
ख़ुद से ख़ुद को पाने की कशमकश में औरों से जंग थी
न जाने जिंदगी की उस बोझिल सी खुशी में
ख़ुद से दूर हो जाने का एहसास था ॥
बचपन में कभी ख्वाहिशों के पर दिखे थे
और आज उन्ही ख्वाहिशों के तेवर तीखे थे
भीगे थे कभी जिस रिमझिम में
बरसों में,आज उसमें घोले वो रंग फीके थे
उस कच्ची सी उम्र के वो मिटटी के घरोंदें
आज उनके पल भर में टूट जाने का एहसास था॥
कल तलक सब धुंधला सा था,फिर भी उसमें जीवन था
आज सब कुछ साफ़ था,मगर खालीपन था
कुछ यादें चुभ रही थी दिल में इस तरह
कुछ मर रहा था मुझ में,न जाने कौन खत्म था
और बरबस ही बहते जा रहे थे वो आंसूं
जिनका कभी जिंदगी के संग मुस्कुराने का ख्वाब था॥