Thursday, March 31, 2011

उम्र धानी सी


अब भी उलझी है नींद में
तुम्हारी उँगलियों की थपकी
अब भी मन के बंजर में
कोई तुम सा रहता है
तुम बीती रातों के चाँद ही सही
अब भी अम्बर के सूनेपन में
तुम्हारा दरिया बहता है !
अब भी आँखों के धागे
बनाकर ख़्वाबों की किश्ती
डूब जाते है तुम में
खोजते है वही बस्ती
जहाँ मिटकर रोज ही
बनता हूँ मैं
वहां यादों का कारवां
अक्सर ही ठहरता है !
वो कुछ हरफ जो अब भी
होंठो से चिपके रहते है
मेरी ख़ामोशी को
तेरी ग़ज़ल कहते है
और तन्हाई जैसे
तेरी महफ़िल हो जाती है
मेरा वजूद हर रोज ही
ऐसे तुझको पहरता है !
यही होता है बस
जब भी खुद को बुनता हूँ
कोई भी लिबास हो
रंग तेरा ही चुनता हूँ
और हो जाती है
फिर एक उम्र धानी सी
तुझको तरसती जिंदगी की
हर साँस पानी सी
और मेरा वजूद पल पल
बूँद-बूँद तुमसे भरता है !

Tuesday, March 1, 2011

सिलसिला..



याद है तुम्हे
कभी मेरे जीवन का धागा
तुम्हारी जिंदगी में उलझ गया था !
उधड गया था मैं यकायक
सुलझाने में जब तुमसे खींच गया था !
बिखर गए थे जैसे सारे ताने-बाने
एक दूजे में सिमटे से दो अनजाने
मैं भटक गया था लफ़्ज़ों के फेर में
और तुम कहीं ख़ामोशी के ढेर में
इस बेवक्त की खींचतान में
वो प्रीत भरा ख़त यूँ ही फट गया था !
किस अल्हड़पन से ले रहे थे हम पंगें
उड़कर अपने-अपने मन की पतंगें
एक डोर-दूजी डोर से लिपटने को थी
जैसे हाथ लग गयी थी दबी सी उमंगें
देर तक चलता रहा था ये सिलसिला
और बस फिर नींद के मांझे से मांझा कट गया था !