कुरेदती जा रही थी मिटटी
ख़ुद को पाने की भूल में ॥
कुछ भी तो हाथ न आया
जिंदगी की धूल में ॥
कुछ एहसास लपककर
गोद में सो गए थककर
और मैं जागती रही
आख़िर यूं ही फिजूल में॥
जिंदगी खलती चली गई
मैं बस चलती चली गई
वो मेरे जेहन तक चुभा
अपना रंग ढूंढती रही
जाने क्यों उस शूल में॥
सूखी आंखों के मोती थे
या अंधेरों की पोथी थे
मैं चाहकर भी न पढ़ पाई
क्या था अस्तित्व के मूल में?
12 comments:
पारूल जी बहुत ही सुन्दर ।इतनी सुन्दर अभिव्यक्ति के बहुत बहुत धन्यबाद ।
कुरेदती जा रही थी मिटटी
ख़ुद को पाने की भूल में ॥
कुछ भी तो हाथ न आया
जिंदगी की धूल में ॥
कुछ एहसास लपकर
गोद में सो गए थककर
और मैं जागती रही
आख़िर यूं ही फिजूल में॥
बहुत ही सुन्दर लाईने है !
बहुत बढिया !
जब तक खोजने वाला रहेगा खोज भी रहेगी |
खुद को खोकर 'सब' को पाया जा सकता है |
behad khubsurat rachana atisundar rachana ......badhaee
कुछ भी तो हाथ न आया
जिंदगी की धूल में........
सुंदर लाइनें.
मैं चाहकर भी न पढ़ पाई
क्या था अस्तित्व के मूल में?
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अस्तित्व के मूल को खंगालती यह एहसास की बहुत खूबसूरत रचना है.
बधाई
पारूल जी बहुत ही सुन्दर।।
bahut khub
वाकई बहुत अच्छी रचना है
गीतिका
आचार्य संजीव 'सलिल'
धूल हो या फूल
कुछ भी नहीं फजूल.
धार में है नाव.
सामने है कूल.
बात को बेबात
दे रहे क्यों तूल?
जब-जब चुने उसूल.
तब-तब मिले हैं शूल.
है अगर इंसान.
कर कुछ हसीं भूल.
तज फ़िक्र, हो बेफिक्र.
सुख-स्वप्न में भी झूल.
वह फूलता 'सलिल'
मजबूत जिसका मूल.
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Bahut gahre bhaaw hain. Aapki lekhni ko salaam karne ko jee chaahta hai.
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
nayi soch
shaayad maulik soch...
achha laga baanch kar...........badhaai !
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