Thursday, July 30, 2009

अस्तित्व !


कुरेदती जा रही थी मिटटी
ख़ुद को पाने की भूल में ॥
कुछ भी तो हाथ न आया
जिंदगी की धूल में ॥
कुछ एहसास लपककर
गोद में सो गए थककर
और मैं जागती रही
आख़िर यूं ही फिजूल में॥
जिंदगी खलती चली गई
मैं बस चलती चली गई
वो मेरे जेहन तक चुभा
अपना रंग ढूंढती रही
जाने क्यों उस शूल में॥
सूखी आंखों के मोती थे
या अंधेरों की पोथी थे
मैं चाहकर भी न पढ़ पाई
क्या था अस्तित्व के मूल में?

12 comments:

Drmanojgautammanu said...

पारूल जी बहुत ही सुन्दर ।इतनी सुन्दर अभिव्यक्ति के बहुत बहुत धन्यबाद ।

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

कुरेदती जा रही थी मिटटी
ख़ुद को पाने की भूल में ॥
कुछ भी तो हाथ न आया
जिंदगी की धूल में ॥
कुछ एहसास लपकर
गोद में सो गए थककर
और मैं जागती रही
आख़िर यूं ही फिजूल में॥

बहुत ही सुन्दर लाईने है !

Arkjesh said...

बहुत बढिया !

जब तक खोजने वाला रहेगा खोज भी रहेगी |
खुद को खोकर 'सब' को पाया जा सकता है |

ओम आर्य said...

behad khubsurat rachana atisundar rachana ......badhaee

डॉ. मनोज मिश्र said...

कुछ भी तो हाथ न आया
जिंदगी की धूल में........
सुंदर लाइनें.

M VERMA said...

मैं चाहकर भी न पढ़ पाई
क्या था अस्तित्व के मूल में?
===
अस्तित्व के मूल को खंगालती यह एहसास की बहुत खूबसूरत रचना है.
बधाई

Mithilesh dubey said...

पारूल जी बहुत ही सुन्दर।।

mehek said...

bahut khub

अनिल कान्त said...

वाकई बहुत अच्छी रचना है

Divya Narmada said...

गीतिका

आचार्य संजीव 'सलिल'

धूल हो या फूल
कुछ भी नहीं फजूल.

धार में है नाव.
सामने है कूल.

बात को बेबात
दे रहे क्यों तूल?

जब-जब चुने उसूल.
तब-तब मिले हैं शूल.

है अगर इंसान.
कर कुछ हसीं भूल.

तज फ़िक्र, हो बेफिक्र.
सुख-स्वप्न में भी झूल.

वह फूलता 'सलिल'
मजबूत जिसका मूल.

*********************

Science Bloggers Association said...

Bahut gahre bhaaw hain. Aapki lekhni ko salaam karne ko jee chaahta hai.
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

Unknown said...

nayi soch
shaayad maulik soch...
achha laga baanch kar...........badhaai !