When emotions overflow... some rhythmic sound echo the mind... and an urge rises to give wings to my rhythm.. a poem is born, my rhythm of words...
Wednesday, February 25, 2009
तिशनगी.
क्यों इस तरह से
जिंदगी से खफा से
हम ख़ुद में ही सिमट रहे है॥
होते जा रहे है यूं दूर सबसे
कि जैसे फासलों में कट रहे है ॥
बना रहे है आंखों को समन्दर
डूबे हुए है सब ख्वाब जिस के अन्दर
कतरा कतरा बहे जा रहे है
गम से इस तरह लिपट रहे है॥
फैली स्याह में खो गए उजाले
कोई तो आकर ये उम्मीद संभाले
रह रहकर यूं लग रहा है
पल पल में जैसे हम मिट रहे है॥
कहीं तो मांगें ये मन दिलासा
और कहीं बस रह जाए प्यासा
ये तिशनगी हम बुझाये कैसे
ये सोच अश्कों में बँट रहे है॥
हरेक लम्हा जैसे है सवाली
और हर जवाब है जैसे खाली
क्या हो गया है आख़िर ये कि
खामोशी के कदम भी पीछे हट रहे है॥
मैं ही न ख़ुद को समझूं तो कौन जाने?
कि खो के ख़ुद को,यूं लगे किसको पाने?
जो देखा खोल आज जिंदगी को
तो पाया कुछ पन्ने फट रहे है॥
है धुंधली दिल की तस्वीर कोई
सुलग रही है फिर पीर कोई
उजाले फीके से पड़ गए तो
हम रातों को उलट रहे है॥
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6 comments:
बहुत बढ़िया मनभावन रचना उम्द्दा . बधाई पारुल जी
सुलग रही है फिर पीर कोई
उजाले फीके से पड़ गए तो
हम रातों को उलट रहे है.
...वाह पारुल जी, शब्द और अर्थ पूरा परिवेश उकेरने में अत्यंत समर्थ और सुपठनीय लगे. बधाई. आपकी रचना को सलाम.
बना रहे है आंखों को समन्दर
डूबे हुए है सब ख्वाब जिस के अन्दर
कतरा कतरा बहे जा रहे है
गम से इस तरह लिपट रहे है॥
Parul,
achchhee abhivyakti.badhai.
Poonam
है धुंधली दिल की तस्वीर कोई
सुलग रही है फिर पीर कोई
उजाले फीके से पड़ गए तो
हम रातों को उलट रहे है॥
bahut achhi lagi rachana badhai
आँखों के समन्दर में , खारा पानी ठहरा।
कुछ थाह नही मिलती,गम का दरिया गहरा।
ये तिशनगी हम बुझाये कैसे .........वाह पारुल जी बहुत सुन्दर
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
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