Thursday, November 12, 2009

अस्तित्व


जो मैं ख़ुद में नही पाता कभी
वो तुम में नज़र आता है
मेरा होना,तेरे होने से
जैसे भर जाता है ।।
मैं छूकर तुम्हे जैसे महसूस करता हूँ ख़ुद को
और सोचता हूँ तुझसे, मेरा
ये कैसा नाता है?
तू अनजाने में ही
मेरी तन्हाई से लड़ता है
मन को बल सा मिलता है
जब तू हाथ पकड़ता है
मैं तेरी छोटी छोटी उँगलियों में उलझ जाता हूँ
तू मेरी हर बड़ी मुश्किल को सुलझाता है ।।
ये ऐसा क्यों है,वो वैसा क्यों है
जब तू पूछता है
मेरा जीवन जैसे
हर सच से जूझता है
मैं तुझको बहलाने की कोशिश में लग जाता हूँ
या कि शायद तू ही मुझको बहलाता है ।।
तू जिद करता है,रोता है आंखों को मींचता है
मेरे मन के किसी प्यासे से सपने को सींचता है
बाँध रंग-बिरंगें गुब्बारे से अपने मन की डोर
तू जैसे मेरी ख्वाहिशों को पर लगाता है ।।
तू अपनी बात से मेरी खामोशी को यूं तोलता है
ऐसा लगता है जैसे तू मेरे मन की बोलता है
तेरे "पा" कहने में ,मैं पा जाता हूँ सब कुछ
और ये एक शब्द ही मेरा अस्तित्व कह जाता है ।।










7 comments:

Dr. Shreesh K. Pathak said...

एक -होने का दूसरे होने तक की सतत अस्तित्व यात्रा...

aarya said...

यही है जीवन का मूल, जिसे हम जाते हैं भूल,
वेहद सुन्दर रचना
रत्नेश त्रिपाठी

Udan Tashtari said...

बेहतरीन सुन्दर रचना.

Parul kanani said...

dhanywaad

देवेन्द्र पाण्डेय said...

सुंदर अहसास जगाती, खूबसूरत कविता।

अजित वडनेरकर said...

बढ़िया अभिव्यक्ति...

डा0 हेमंत कुमार ♠ Dr Hemant Kumar said...

Sundar abhivyakti...
HemantKumar