Tuesday, August 18, 2009

शामियाने!


कोई आंसूं पूंछें मेरे,कोई लगे दर्द सहलाने
कोई मुझे ख़ुद सा समझें और लगे चाहने
ऐसा ही कोई अपना सा ढूँढता फिरता हूँ
जो सिखा दे जीना,इस जिंदगी के बहाने ....
अब नही भाते रेत में से चमकते मोती
काश इतनी ही कदर इन आंसूओं की होती
न प्यासा सा यूं ही रह जाता मन
सपने हो जाते वक्त से पहले ही सयाने ...
मेरी,मुझसे ही अगर बात करता कोई
झूठे ख्वाबों में न बरबाद रात करता कोई
मैं जाग जाता एक नई सुबह से पहले
और समझ जाता ख़ुद के होने के मायने ...
मैं क्यों समझा नही,डरता रहा पानी से
क्यों उबर पाया नही,गम की जिंदगानी से
काश एक बार उतर जाता इस समन्दर में
तो शायद लगते ये नमकीन आंसूं भी भाने ...
ऐ जिंदगी!आख़िर तू नमकीन कब नही?
मेरे लिए तो तू बेरंग सी अब नही
धीरे धीरे रंग घुल रहे है वजूद में
दिख रहे है चमकते से फलक के शामियाने ...

5 comments:

अनिल कान्त said...

आपने काफी कुछ कहा इस रचना से....मुझे आपकी रचना पसंद आई

Mithilesh dubey said...

क्या बात है, दिल को छु लेने वाली रचना, । लाजवाब

ओम आर्य said...

laazwaab bahut hi sundar anubhooti dene wali rachana

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

हम तो बाढ़ से परेशान हैं,
मगर आपकी इस सुन्दर रचना के लिए
बधाई तो दे ही देते हैं।

RAJESH YADAV said...

ख्वाबों भरी जिंदगी में चाहतों के समंदर की अपना जादू होता है जो आपकी कविता में दिखता है. जिंदगी बस उड़ते हुए पत्तों की तरह होती है और सपने बंद गुल्लक में बंद उस सिक्के की तरह जिनसे हमें बड़ी उम्मीद होती है..