Friday, August 28, 2009

अब और...



वो ख्वाब,वो मंज़र तो एक बहाना था
हकीक़त तो ये है कि मुझको,तुम तक आना था।
नही जानती इस तरह से क्यों चली आई थी मैं ?
पर ऐसा लगता था जैसे तुमको कुछ लौटाना था।
जिन्दगी सुलगती जा रही थी हर कश में
यूं था जैसे कि मैं ख़ुद नही थी,अपने बस में
बढ़ रहे थे कदम जैसे अनजान राहों पर
और मकसद इस भीड़ में ख़ुद ही को पाना था।
यकीं करो,कोई एहसास नही था पहले ख़ुद को खोने का
जब तलक एहसास था इर्द-गिर्द तेरे होने का
मैं तुम में जिंदगी की ख्वाहिश पा रही थी
और इसी ख्वाहिश में ही कहीं मेरा ठिकाना था
जब तंग गई थी मैं,तुम में अपनी खोज से
दबने लगी थी कहीं कहीं ऐसी ख्वाहिशों के बोझ से
यही सोचा कि अब सब कुछ तुमको ही लौटा दूँ
आख़िर कब तक जिंदगी को यूं ही बिताना था ?
मैं जलाकर आई थी ख्वाबों का घरोंदा
जिन्हें देख जागती रातों का मन भी था कोंधा
मैंने जिंदगी को था झूठे सपनों से रोंदा
मुझे ख़ुद को अब और ऐसे नही दोहराना था

9 comments:

नीरज गोस्वामी said...

बहुत भावपूर्ण रचना...बधाई...
नीरज

ओम आर्य said...

बहुत गहरे भाव से सज्जी कविता.........अतिसुन्दर

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

अच्छा लिखा है आपने। भावपूर्ण।

mehek said...

bahut khub

अनिल कान्त said...

मन के भावों को बहुत गहराई से लिखा है

Vinay said...

अत्यन्त सुन्दर कविता है
---
तख़लीक़-ए-नज़र

पूनम श्रीवास्तव said...

achchhee rachna...bahut bahut badhai.
Poonam

नवनीत नीरव said...

achchhi rachan hai. Shabdon ka sahi sanyojan........100 rachanyein poori karne par badhai.
Navnit Nirav

Satya Vyas said...

जब तलक एहसास था इर्द-गिर्द तेरे होने का
मैं तुम में जिंदगी की ख्वाहिश पा रही थी

bahut sundar. indepth feeling.
satya.