Saturday, February 7, 2009

क्यूँ?


मेरी मुश्किल यही है
मेरे लिए सब आसां क्यूँ है?
और जो मुश्किल है
आख़िर वो सब उसका क्यूँ है?
हाथ उठते है क्यूँ उसकी दुआ के लिए
मैं कैसे छोड़ आई उसको खुदा के लिए
एक इंसान भी होना इतना मुश्किल क्यूँ?
और वो मेरे लिए आख़िर ख़ुद खुदा क्यूँ है?
मैं ख़ुद के लिए भी नही,तो फिर किसके लिए?
मैंने इतने वादे फिर क्यों उससे है किए ?
मेरा वजूद जब ख़ुद में एक सवाल है
तो सुकूं,मेरे लिए उसका होना क्यूँ है?
ये सोच है या कि है बस उलझन भर
ऐ जिंदगी तू ऐसे सवालों से ही मन भर
और इंतज़ार कर कुछ खोकर पाने का
तू आखिर इस कदर मुझसे खफा क्यूँ है?

6 comments:

डा0 हेमंत कुमार ♠ Dr Hemant Kumar said...

पारुल जी ,
कई दिनों के बाद आपकी पोस्ट पढी .
लेकिन अच्छी कविता के साथ.
हेमंत कुमार

अनिल कान्त said...

पारुल जी सचमुच ...उस अपने के लिये क्या खूब कहा है आपने ....
आपकी कविता बहुत ही अच्छी है

अनिल कान्त
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

Shikha Deepak said...

मेरा वजूद जब ख़ुद में एक सवाल है
तो सुकूं,मेरे लिए उसका होना क्यूँ है?


बहुत सुंदर। बहुत ही सुंदर....

Vinay said...

बहुत सुन्दर कृति

प्रताप नारायण सिंह (Pratap Narayan Singh) said...

मैं ख़ुद के लिए भी नही,तो फिर किसके लिए?
मैंने इतने वादे फिर क्यों उससे है किए ?
मेरा वजूद जब ख़ुद में एक सवाल है
तो सुकूं,मेरे लिए उसका होना क्यूँ है?
बहुत सुंदर पंक्तियाँ....सुंदर कविता.

रश्मि प्रभा... said...

बहुत बढिया....मासूम प्रश्न दिल को छूते हैं