Tuesday, June 2, 2009

पीर!


ये बड़े हो जाने का एहसास था
या कि ख़ुद से परे हो जाने का एहसास था
मेरी जिंदगी में कुछ अजनबी से ख्वाब दस्तक दे रहे थे
ये शायद उनको अपनाने का प्रयास था ॥
वो ख्वाब,जो शायद मैंने न बुने थे
वो ख्वाब जो मेरे लिए किस ओर ने चुने थे
उन्ही अजनबी से ख़्वाबों की भीड़ में
ख़ुद को अजनबी सा पाने का एहसास था॥
ऐसी ही किसी बात से मैं रहती तंग थी
ख़ुद से ख़ुद को पाने की कशमकश में औरों से जंग थी
न जाने जिंदगी की उस बोझिल सी खुशी में
ख़ुद से दूर हो जाने का एहसास था ॥
बचपन में कभी ख्वाहिशों के पर दिखे थे
और आज उन्ही ख्वाहिशों के तेवर तीखे थे
भीगे थे कभी जिस रिमझिम में
बरसों में,आज उसमें घोले वो रंग फीके थे
उस कच्ची सी उम्र के वो मिटटी के घरोंदें
आज उनके पल भर में टूट जाने का एहसास था॥
कल तलक सब धुंधला सा था,फिर भी उसमें जीवन था
आज सब कुछ साफ़ था,मगर खालीपन था
कुछ यादें चुभ रही थी दिल में इस तरह
कुछ मर रहा था मुझ में,न जाने कौन खत्म था
और बरबस ही बहते जा रहे थे वो आंसूं
जिनका कभी जिंदगी के संग मुस्कुराने का ख्वाब था॥

3 comments:

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

कहूँ कि बहुत अच्छा लिखा है,तो यह काफी न होगा...और इससे ज्यादा क्या लिखूं यह इस वक्त मैं सोच ही नहीं प् रहा....कहूँ तो क्या कहूँ ......लिखूं तो क्या लिखूं.....चलिए इस बार मेरे कुछ ना लिखे को बहुत कुछ लिखा समझ लीजियेगा....!!

speck said...

its great to find hindi blogs.your views, your words really wonderful.

excellent

Parul kanani said...

thanx :)