मैं जिंदगी की कोई तरकीब लिए था
था कुछ तो ऐसा, जो मैं अजीब लिए था !
एक शहर कुछ गोल सा
बस गया था मुझ में
या कि इश्क़ में मैं
चाँद को रकीब लिए था !
समंदर अब भी था
धूप की मुँडेर पर
और मैं खुद को
खुद के करीब लिए था !
कुछ आयतें लिख आया था
उसके दरीचे पर
नींद में भी जैसे
वही तहज़ीब लिए था !
मैं बीत जाऊँ या कि तुम गुज़र जाओ
दिल में न ऐसी कोई
चीज़ लिया था !
कुछ मज़हबी मौसम
फाख्ता से होने लगे जब
दामन में एक बस तेरी
तस्वीर लिए था !!
भावो का सुन्दर समायोजन......
ReplyDeleteआपकी प्रस्तुति गुरुवार को चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है |
ReplyDeleteआभार
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बृहस्पतिवार (09-01-2014) को चर्चा-1487 में "मयंक का कोना" पर भी है!
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सबकी अपनी एक कहानी,
ReplyDeleteकोई अनोखी बात सुनानी।
एक आकृति की तरह उभर आयी यह रचना मानसपटल पर. अति सुन्दर.
ReplyDeleteआपके लेखन में संजीदगी आती जा रही है :)
ReplyDeleteलिखते रहिये।
वाह! बहुत खूबसूरत और प्रभावी रचना...
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ReplyDeletesubhanallah!!
ReplyDeletesubhanallah!!
ReplyDeletejindagi ki lazzat hai..yahin-kahin!!
aap sabhi ka aabhar :)
ReplyDeleteबहुत सुन्दर......
ReplyDelete...और जिंदगी की तबीयत को बेतरतीब लिए था...
ReplyDeleteबहुत खूब
ReplyDeleteatiutam_***
ReplyDeleteसुभानाल्लाह सुभानाल्लाह वाह |
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