Friday, September 20, 2013

रोज़!!



तुम रोज़ के रोज़ वही होकर के
खफा करते हो
क्यों बदलते नही?
वही होकर के भी क्या करते हो!
बस बार बार ये कहना कि
तुम नई लगो
इसका कोई फ़र्क नही
कि ग़लत लगो या सही लगो
मुझसे शिकवा ही तुम बेवजह करते हो !
ये कैसी ज़िद है तुम्हारी
मैं अपना वजूद उतार दूँ
खुद से ही अजनबी होकर के
मैं तुमको प्यार दूँ
मेरी एक ना पे तुम अपनी
'हाँ' की रज़ा करते हो !

क्या मायने नही रखता
हमारा साथ होना
क्यों ज़रूरी है?
दूर रहकर रोज़ मुलाकात होना
बेमतलब ही तुम इश्क़ को सज़ा करते हो !
छोड़ देते हो अपने वादे
बेज़ुबान चाँद पर
एक ज़िंदगी सा
इंतज़ार सांझ पर
दफ़न होकर के रह जाती हूँ
तुम में ही कहीं
रफू,तुम रोज़ ही
खामोशी की सबा करते हो !

21 comments:

  1. welcome back...!
    yes,its touchy!!







    vartika!!

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  2. वाह.... हर तारीफ़-प्रशंसा से अलग हटकर...

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  3. भावनाओं का तीव्र प्रवाह. बहुत अच्छा लगा.

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  4. बेहद संजिदा.....दर्द को आवाज देती हुई ...

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  5. बहुत अच्छी प्रस्तुति संवेदनशील हृदयस्पर्शी मन के भावों को बहुत गहराई से लिखा है

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  6. बेहतरीन अभिवयक्ति.....

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  7. सुन्दर कविता

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  8. आप तो ईद का चाँद हो गईं हैं बड़ी मुश्किल से दर्शन होते हैं अरसे के बाद । मगर ख़ुशी है की कलम का जादू बरक़रार है …… खुबसूरत नज़्म |

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  9. कल 22/09/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    धन्यवाद!

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  10. हृदयस्पर्शी ,बहुत सुंदर रचना.....

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  11. बहुत प्यारी रचना.....

    कोमल सी..

    अनु

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  12. हृदयस्पर्शी

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  13. hamesha hi man ko gudguda jate ho...!

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  14. main to kehta hoon..aapki kitab kab nikalegi?

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  15. पारुल जी जब भावनाएं इतनी तीव्र हो जाती हैं तो मजबूरन निकल ही पड़ता है मुहं से -.

    ........ .मैं अपना वजूद उतार दूँ खुद से ही अजनवी हो कर,के मैं तुमको अपना प्यार दू ,मेरी एक ना पर तुम अपनी हाँ की रजा करते हो...
    सुन्दर कृति

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  16. खुद को मिटा देना ... फिर प्यार गवाही देना तो नहीं ...
    गहरा एहसास समेटे ....

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  17. रोज़ रोज़ रफू करना ...चलो सुराख तो नहीं रहते । सुन्दर अभिव्यक्ति

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