Tuesday, June 29, 2010

जीवन............


बस आज फिर यूँ ही वो बचपन याद आया
किसी मासूम सी जिद पे सिसकता मन याद आया!!
कैसे जिए वो पल अपने ही ढंग में
रंग लिया था जिन्दगी को जैसे अपने ही रंग में
आज देखा जो खुद को,वो सब याद करके
ऐसा लगा कोई भूला सा दर्पण याद आया!!
वो रंग-बिरंगी सी सपनों की किश्ती
वो भूली सी रिमझिम की भोली सी मस्ती
कहाँ छोड़ आया वो मिटटी के खिलोने
परियों की कहानियों से अपनापन याद आया!!
पलता हर पन्ना,जिंदगी थी कोरी
मन की कडवाहट में गुपचुप थी लोरी
मैं खोज रहा था जब अपने जीवन का आकार
तो मुझको बस वो हाथ का 'कंगन' याद आया!!
चारो ही तरफ जैसे तब बिखरे थे उजाले
मुझसे लिपटे अँधेरे को अब कौन संभाले
कैसे भूल गया मैं वो अम्बर का पहाडा
मुझे चरखे वाली नानी का संग याद आया॥
आज सब कुछ याद करके जैसे एक सवाली था मैं
बहुत कुछ पाकर भी जैसे खाली था मैं
जिंदगी को भूल,खुद को कैसे जी रहा था मैं
बहुत रोया मैं,जब मुझे अपना जीवन याद आया!!



(कंगन-माँ का कंगन)

44 comments:

  1. बहुत सुंदरा रचना ... माजी के दिन अक्सर रुला जाते हैं ...

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  2. बहुत सुंदरा रचना .

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  3. पारुलजी
    आपके मन की संवेदनाएं नमनीय है ।
    अच्छी भावपूर्ण रचना है ।

    जज़बात ही सच्चे क़लमकार की दौलत है ।

    भावों की बारिश में भीगने के लिए आइए शस्वरं पर …

    - राजेन्द्र स्वर्णकार
    शस्वरं

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  4. bachpan..
    kuch anmol yaadon ka ye safar khoobsurat hai!

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  5. "आज सब कुछ याद करके जैसे एक सवाली था मैं
    बहुत कुछ पाकर भी जैसे खाली था मैं"

    कितनी सही बात कही जी आपने.....अब तो बस सोच ही सकते है...और कर भी क्या सकते है...?

    कुंवर जी,

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  6. मैं खोज रहा था जब अपने जीवन का आकार,
    तो मुझको बस वो हाथ का कंगन याद आया..

    थमा था यहाँ पर..

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  7. बचपन तो बस बचपन है
    सुन्दर रचना

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  8. पारुल बहुत से लोग यौवन को रोते है पर हम जैसे बचपन को रोते है .... मिटटी के खिलोने ,गलिया,कुल्फिवाला पता नहीं क्या क्या याद दिला दिया

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  9. जब दर्द एक एक कर बढ़ते रहे तो बचपन के वो मदमस्त दिन यूँ ही रुला जाते हैं .....और माता पिता का वो अतुलिय स्नेह .....!!

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  10. बहुत खूब ... पारुल जी ||
    आपकी इस रचना को पढकर,
    मुझे जगजीत सिंह और चित्रा सिंह जी
    द्वारा गाई गीत याद आई ||

    ये दौलत भी ले लो, ये शौहरत भी ले लो
    भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी ...

    मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन
    वो कागज़ की कश्ती , वो बारिस का पानी ...

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  11. अच्छी भावपूर्ण रचना

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  12. काश! हम लौट पाते,तो एवज में हर खुशी कुर्वान कर देते |
    दुलार-ममता -स्नेह-बहिनापा को ,आसान कर लेते |
    फिर मचलता-रूठता ,हर जिद्द मनवाता -
    चाँद पाने की बेतुकी-धुन में ,एक जमीन-आसमान कर देते |.........पर
    यहाँ हर काम संभव है बस यही 'एक' नहीं होता |
    वो बचपन का मधुर-अभिनय 'रिटेक ' नहीं होता ||
    एक खूबसूरत कविता, भोगे हुए पलों को पुन: जी लिया | ज्यादातर बिछड़े याद आए, कभी जो मेरे अपने थे |
    बहुत-बहुत बधाई | धन्यवाद |

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  13. बढ़िया है!

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  14. आपकी संवेदना को मैं भी नमन करता हूं। आप सामने होती तो आपका मुंह मीठा कराता.. पक्का।
    बहुत ही शानदार लिखा है आपने।

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  15. are mera comment nadaarad kyo...?

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  16. aapka commenta nadarad..samjhi nahi..ye sawaal mujhse hai?aapka comment tha hi nahi..ab hi de dijiye :)

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  17. बस आज फिर यूँ ही वो बचपन याद आया
    किसी मासूम सी जिद पे सिसकता मन याद आया!!

    --

    बचपन का सुन्दर विवेचन और बढ़िया विश्लेषण!

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  18. khubsurat...bahut achchha laga inhe padhna :)

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  19. बचपन के दिन सबको याद रहते हैं। सब अपने अपने तरीके से याद करते हैं।

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  20. aapke paas jo ye doulat hai din dunee raat chougunee ho jae aur ise lekhan se padkar faydaa to hamara hee hone wala hai.........
    kuch panktiya sawal khada kartee hai.......jaise

    मैं खोज रहा था

    कैसे भूल गया मैं वो

    aur aakhree pankti me

    बहुत रोया मैं.........?
    tatpary samajh me aagaya hoga..........?

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  21. aap sabhi ka bahut bahut shukriya! :)

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  22. सॉरी .... पारुल.... आजकल बहुत बिज़िनेस है...इसलिए देरी से आया.... बहुत अच्छी लगी यह कविता..... पता है.... मैं ना अपने बचपन को बहुत मिस करता हूँ.... इसलिए अपने स्कूल टाइम की बातें करना बहुत अच्छा लगता है.... बहुत सुंदर रचना....

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  23. मजा आ गया पढकर,लिखते रहिऐ


    सुप्रसिद्ध साहित्यकार और ब्लागर गिरीश पंकज जी का इंटरव्यू पढने के लिऐ यहाँ क्लिक करेँ >>। एक बार जरुर पढेँ

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  24. jo pankiya maine duhraee hai unhe padkar lagata hai ise kavita kokoi likhane wala hai likhane walee nahee.
    agar padogee to samajh jaogee.........

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  25. आप की इस रचना को शुक्रवार, 2/7/2010 के चर्चा मंच के लिए लिया जा रहा है.

    http://charchamanch.blogspot.com

    आभार

    अनामिका

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  26. बहुत बढ़िया...
    आप ने बचपन से मिला दिया !
    जीवन का एक और रंग दिखा दिया !
    खो गया था बचपन नाजाने कहा !
    आप ने फिर से मिला दिया !

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  27. ' वो कागज़ की किश्ती, वो बारिश का पानी......'
    पारुलजी, बस आज फिर यूँ ही वो बचपन याद आया....।

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  28. खूबसूरत यादों से सहेजी गयी सुन्दर रचना....

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  29. sach much zindagi kitni yaad deti hai na... sahejte jao sahejte ja..aur sabse badi bat zindagi hi yad deti hai zindagi hi shelf hai jisme saheji jayen ye yad,,inke liye alag se shelf banane ki zaroorat nahi ...badhiya post..mere bhi mann ka ghoda thoda hila dula...yaadon ke chane khayega ab ..

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  30. कमाल है!
    आप तो बहुत क्लास पढ़ी लगती हैं!
    पहचान नहीं पायीं इस खोटे सिक्के को?!
    चल गया..... हा हा हा हा हा!
    मैं खोज रहा था जब अपने जीवन का आकार
    तो मुझको बस वो हाथ का 'कंगन' याद आया!!
    जय हो!

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  31. बहुत उम्दा अभिव्यक्ति!

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  32. आज सब कुछ याद करके जैसे एक सवाली था मैं बहुत कुछ पाकर भी जैसे खाली था मैं

    @पारुल जी

    हम सबके दिलों दिमाग में बसी हुई अपने बचपन की यादों को बहुत ही सुंदर एवं सच्ची अभिव्यक्ति दी है आपने, इसी प्रकार की उम्दा रचनाएँ हम सबके समक्ष लाती रहें ,इसके लिए आपको बहुत-२ बधाई एवं शुभकामनायें

    महक

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  33. पारुलजी, आपकी रचना पढ़कर हमे भी अपना बचपन याद आया , बहोत ही बेहतरीन वाह ......... । शिरडीवाले साईबाबा आपको और क़ाबलियत दे यही प्रार्थना ,,,,,,,,,,

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  34. पारुलजी, आपकी रचना पढ़कर हमे भी अपना बचपन याद आया , बहोत ही बेहतरीन वाह ......... । शिरडीवाले साईबाबा आपको और क़ाबलियत दे यही प्रार्थना ,,,,,,,,,,

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  35. "बार - बार आती है मुझको मधुर याद बचपन की.."
    बढ़िया किन्तु मुझे लगता है कि हिन्दी प्रकृति के हिसाब से 'था'/ 'थी' आदि को भी देख लिया जाना चाहिए!
    बाकी सब ठीक !

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  36. मैं खोज रहा था जब अपने जीवन का आकार,
    तो मुझको बस वो हाथ का कंगन याद आया..

    sab kuch to hai us 2 inch diameter ke andar.

    sundar rachna !

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  37. जीवन याद कर लेना ही जीवन की दिशा निर्धारण के लिये पर्याप्त है ।

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  38. ये यादें जीने का सहारा होती हैं .... भावनाओं का सैलाब उतार दिया है आपने ....

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  39. बहुत सुंदर रचना है। एक बात मैं नहीं समझ पाता कि जब हम बच्चे होते हैं तो उसके महत्व को क्यों नहीं समझ पाते। और जब बचपन निकल जाता है तो उसके लिए तड़पते हैं। बात बड़ी निराली है।
    वैसे हमेशा की तरह यह रचना भी बहुत ही शानदार बन पड़ी है।

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