When emotions overflow... some rhythmic sound echo the mind... and an urge rises to give wings to my rhythm.. a poem is born, my rhythm of words...
Thursday, June 3, 2010
न डूबे!
देख! तेरे आंसूओं से कहीं किनारा न डूबे
नम से ख़्वाबों में रात का कोई तारा न डूबे!!
मुझे खबर है कई रोज से तुम सोये नहीं हो
थक भी गए हो इतना कि और रोये नहीं हो
भर गया है किसी हद तक तेरे मन का समन्दर
याद रखना!कहीं इसमें तेरा कोई प्यारा न डूबे!!
चाँद भी देख रहा है, सब कुछ बादलों की ओट से
रात सिहर रही है, टूटे ख़्वाबों की चोट से
चांदनी झिलमिला रही है फिर भी तुझ में
देख!तेरे दिल को रोशन करता ये नज़ारा न डूबे!!
मुझे अपना समझ, दिल की दिल से बात होने दे
मुझे तन्हा न कर,बस अपने साथ होने दे
बना ले मेरे दिल को अपनी कश्ती
ये प्यार तेरा मेरा फिर दोबारा न डूबे!!
समेट लेने दे आंसूओं को, पलकों की कोर से
भरोसा कर,न होगी कोई गलती मेरी ओर से
देख सकता नहीं जिंदगी को और यूँ छलकता
है कोशिश यही,ख्वाहिश कोई बेसहारा न डूबे!!
wow...superb poetry!
ReplyDeletehey aakhri ki chaar panktiyan to lajawaab hai...waah bahut sundar kavita...
ReplyDeleteदेख सकता नहीं जिंदगी को और यूँ छलकता
ReplyDeleteहै कोशिश यही,ख्वाहिश कोई बेसहारा न डूबे!!
...bahut hi badhiya, dardanaak.
देखिए मै आप को नहीं जानता लेकिन प्रसून साहब को पढ़ रहा था, और पढ़ते -पढ़ते नज़रे आप पर टिक गयी और जब आप के कविता को पढ़ा तो मुझे लगा कि मै भी अपने विचार प्रकट करु... तो मैने कुछ कशीदे लिखे है जो आप को भेज रहा हूं । वैसे आप लिखती अच्छा है।
ReplyDeleteलगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में
किसकी बनी है आलमे-ना-पायदार में
बुलबुल को बाग़बां से न सय्याद से गिला
क़िस्मत में क़ैद थी लिखी फ़स्ले-बहार में
कहदो इन हसरतों से कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहां है दिले दाग़दार में
एक शाख़े-गुल पे बैठ के बुलबुल है शादमां
कांटे बिछा दिए हैं दिले-लालज़ार में
उम्रे-दराज़ मांग के लाए थे चार दिन
दो आरज़ू में कट गए दो इंतिज़ार में
दिन ज़िंदगी के ख़त्म हुए शाम हो गई
फैला के पांव सोएंगे कुंजे मज़ार में
वो आए घर में हमारे, खुदा की क़ुदरत हैं!
कभी हम उनको, कभी अपने घर को देखते हैं
सिलसिला ज़ख्म ज़ख्म जारी है
ये ज़मी दूर तक हमारी है
मैं बहुत कम किसी से मिलता हूँ
जिससे यारी है उससे यारी है
वाह!
ReplyDeleteसादगी से व्यक्त की गयी प्रवाहमयी भावनाए...
हर पंक्ति बड़े करीने से सजाई लगती है..
कागज़ पर शब्दों की कढाई लगती है...
कुंवर जी,
रचना में एक-एक शब्द
ReplyDeleteनगीने की तरह से संजो दिया है!
--
बहुत ही सुन्दर रचना है!
वैसे तो पारुल जी मै आप को नहीं जानता लेकिन प्रसून साहब को पढ़ रहा था और नज़रे आप पर टिक गयी। सोचा कि आप के लिखे कशीदे पढ़े जाएं तो आपकी रचित रचना पढ़ने लगा। न डूबे कविता अच्छी लगी सो मैने टिप्पणी की । वैसे लिखती अच्छा है
ReplyDeleteउम्रे-दराज़ मांग के लाए थे चार दिन
दो आरज़ू में कट गए दो इंतिज़ार में
वो आए घर में हमारे, खुदा की क़ुदरत हैं!
कभी हम उनको, कभी अपने घर को देखते हैं
रोने से और् इश्क़ में बेबाक हो गए
धोए गए हम ऐसे कि बस पाक हो गए
उनके देखे से जो आ जाती है मुँह में रौनक
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है।
सारे बदन का खून पसीने में जल गया
इतना चले कि जिस्म हमारा पिघल गया
चलते ही गिन रहे थे मुसीबत के रात दिन
दम लेने हम जो बैठ गये दम निकल गया
अच्छा हुआ जो राह में ठोकर लगी हमें
हम गिर पडे तो सारा जमाना संभल गया
वैसे तो पारुल जी मै आप को नहीं जानता लेकिन प्रसून साहब को पढ़ रहा था और नज़रे आप पर टिक गयी। सोचा कि आप के लिखे कशीदे पढ़े जाएं तो आपकी रचित रचना पढ़ने लगा। न डूबे कविता अच्छी लगी सो मैने टिप्पणी की । वैसे लिखती अच्छा है
ReplyDeleteउम्रे-दराज़ मांग के लाए थे चार दिन
दो आरज़ू में कट गए दो इंतिज़ार में
वो आए घर में हमारे, खुदा की क़ुदरत हैं!
कभी हम उनको, कभी अपने घर को देखते हैं
रोने से और् इश्क़ में बेबाक हो गए
धोए गए हम ऐसे कि बस पाक हो गए
उनके देखे से जो आ जाती है मुँह में रौनक
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है।
सारे बदन का खून पसीने में जल गया
इतना चले कि जिस्म हमारा पिघल गया
चलते ही गिन रहे थे मुसीबत के रात दिन
दम लेने हम जो बैठ गये दम निकल गया
अच्छा हुआ जो राह में ठोकर लगी हमें
हम गिर पडे तो सारा जमाना संभल गया
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ReplyDeleteदेख सकता नहीं जिंदगी को और यूँ छलकता
ReplyDeleteहै कोशिश यही,ख्वाहिश कोई बेसहारा न डूबे!
बहुत खूबसूरत एहसास....
रात सिहर रही है, टूटे ख़्वाबों की चोट से
ReplyDeleteचांदनी झिलमिला रही है फिर भी तुझ में
देख!तेरे दिल को रोशन करता ये नज़ारा न डूबे!!
BAHUUUUUT KHOOBSURAT NAJM ..MAJA AA GAYA SUBAH SUBAH PADH KAR :)
bahut sunder ek ek pankti asar chod gayee...........
ReplyDeletebahut sunder abhivykti.
क्या बात है, एक शेर याद आ गया :-
ReplyDeleteकी कही दिनों से, इन आँखों में नींद नहीं जालिम.
फिर भी कुछ ख्वाब आकर, मेरी छत में मंडराते क्यों है?
सार्थक और बेहद खूबसूरत,प्रभावी,उम्दा रचना है..शुभकामनाएं।
ReplyDeleteखूबसूरत भाव दर्शाती बढ़िया कविता...बधाई
ReplyDeleteहै यही कोशिश कोई बेसहारा न डूबे सिर्फ शब्दों में नही बल्कि हकीकत में हो हर किसी की जिंदगी की प्राथमिकता में शायद लिखने की जरुरत ही नही होती है ....अच्छा लगा कि अपने से शुरु करके किसी ऐसे पर खत्म लाइने हुई जो सबका है और किसी का नही है ....
ReplyDeleteकोशिश यही कोई बेसहारा न डूबे बहुत खूब अच्छा लगा खुद से शुरु होकर उस पर खत्म करना जिसे हम जानते भी है और नही भी जानते है ...
ReplyDeleteसुंदर भाव के साथ.....बहुत सुन्दर प्रस्तुति.....
ReplyDeleteमुझे खबर है कई रोज से तुम सोये नहीं हो
ReplyDeleteथक भी गए हो इतना कि और रोये नहीं हो
सच में माशूक का इतना ख्याल ... :-)
खूबसूरत नज़्म
वह जिसे मानवीय एहसासों की परवाह है
ReplyDeleteवह जिसे सवेदानाओं की इज्जत करनी आती है
और वह जिसे पारुल सी परखी, जो आकर दे देती है निराकार को भी
सालाम ..
पारुल जी आप बहुत संवेदनशील लिखती हैं
ह्रदय से बधाई !
really touching
ReplyDeletehriday sparshi lekhan
badhai
बहुत खूब !
ReplyDeleteबहुत खूबसूरती से लिखे हैं एहसास....सुन्दर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteaap sabhi ka tahe-dil se aabhar! :)))))))))))))
ReplyDeleteसमेट लेने दे आंसूओं को, पलकों की कोर से
ReplyDeleteभरोसा कर, न होगी कोई गलती मेरी ओर से
देख सकता नहीं जिंदगी को और यूँ छलकता
है कोशिश यही ख्वाहिश, कोई बेसहारा न डूबे!!
Parul JI
ReplyDeleteaap ki kavita padane ke bad laga ki vastava men abhivyakti jodati kaise hai
2 lines
vakti thapedon se bhale Dariya ne Dhoya Hamko ........
Sahil se vafa karna hamne darakhton se sikha hai ..
wah-wah 2.2...
ReplyDeletehar sher aapne aapme bahut kuchh kahta hai...
badhai ho parul ji.
bahoot sunder kavita hai.baar-baar padhane ko ji chahata hai.bhawanao ke prawah ko disha deti tahe.
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ReplyDeleteसिलसिला ज़ख्म ज़ख्म जारी है
ReplyDeleteये ज़मी दूर तक हमारी है
मैं बहुत कम किसी से मिलता हूँ
जिससे यारी है उससे यारी है
bahut khoob likha hai
Hi..
ReplyDeleteSabne likha hai etna ki..
Ab kuchh bacha nahi..
Sabne to sab kuchh hai kaha..
Bas "WAH" kaha nahi..
WAH., WAH..
DEEPAK..
अरे वाह...क्या कमाल का लिखा है आपने...बेहतरीन... :) :)
ReplyDeleteआईये जानें .... मैं कौन हूं!
ReplyDeleteआचार्य जी
सुन्दर सोच, शानदार अभिव्यक्ति।
ReplyDelete--------
रूपसियों सजना संवरना छोड़ दो?
मंत्रो के द्वारा क्या-क्या चीज़ नहीं पैदा की जा सकती?
...बेहतरीन !!
ReplyDeleteLagta hai kaafi class padhi hain aapne!
ReplyDeleteHa ha ha.....
Utkrisht!
lajawab!
ReplyDeletevivj2000.blogspot.com
बहुत उम्दा प्रवाह और बेहतरीन भाव!! आज तो जीत लिया मंच..बहुत खूब, पारुल!! बधाई.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर , क्या रवानगी है , किनारा न डूबे ...
ReplyDeletebehad bhavpurna.....
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति। क्या कहने। क्या लिखूं, समझ नहीं पा रहा हूं। शुरू से अंत तक वाह। क्या कहने। बहुत शानदार कविता। मनभावन। अतिसुंदर। आप जैसे लोगों की बहुत जरूरत कवित्व संसार में। मेरी बधाई।
ReplyDeletehttp://udbhavna.blogspot.com/
बहुत ही अच्छी रचना.
ReplyDeleteसुन्दर रचना ..
ReplyDeletenice,very nice....really i feel the rhythm of words...
ReplyDeletekoi beshara na dubane paye.besahara ko sahara diya jay...
ReplyDeletejeevan ka sakaratamak paksh baya kar rahi hai yah kavita ,bahut dhanyabad...
awesome!
ReplyDeletelast two lines in particular...
amazing depth!