Tuesday, February 16, 2010

जिरह .


करने लगा जिरह अपने मन से
न जाने क्या क्या जिंदगी को बकने लगा
किस तरह जुदा हुआ खुद से मालूम नहीं
मगर रोज अब अपनी राह तकने लगा ॥
मर रहा था रोज तिल तिल जहर को पिए
सोचता था क्यों बाकी हूँ और किस लिये
और जब याद आई फिर अपनी ही
तो लबों पे वजूद सा कुछ चिपकने लगा ॥
ख़ामोशी आई थी लफ़्ज़ों की कतरन लिये
और एक सिसकता सा मन लिये
क्या क्या नहीं था उस ख़त में
जिसको था मैं अपने लिये रखने लगा ॥
करता था जब कोई सवाल खुद से
जवाब जैसे हो जाते थे बुत से
इस कदर अजनबी हो गया था खुद से मैं
कि आईने में भी था भटकने लगा ॥
जब लगा तन्हा है जिंदगी का सफ़र
मन बनने लगा जैसे रेत का घर
एक एक करके करता रहा क़त्ल
और फिर उन ख्वाहिशों को कफ़न से ढकने लगा ॥

27 comments:

  1. बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति लगी, शब्दो का चयन लाजवाब रहा।

    ReplyDelete
  2. very nice poem. is this ur's?
    if yes then why your poems have the voice of a male?

    ReplyDelete
  3. बहुत बढ़िया रचना .....

    ReplyDelete
  4. जब लगा तन्हा है जिंदगी का सफ़र
    मन बनने लगा जैसे रेत का घर
    एक एक करके करता रहा क़त्ल
    और फिर उन ख्वाहिशों को कफ़न से ढकने लगा

    रेत के घर में ख्वाहिशों का दफ़न ..... लाजवाब कल्पना ........

    ReplyDelete
  5. हर बार की तरह अद्भुत। लेकिन हर बार एक सवाल जेहन में आ जाता है। जो आपसे हैप्पी अभिनंदन द्वारा पूछना चाहूँगा। बहुत जल्द।

    ReplyDelete
  6. मर रहा था रोज तिल तिल जहर को पिए
    सोचता था क्यों बाकी हूँ और किस लिये
    और जब याद आई फिर अपनी ही
    तो लबों पे वजूद सा कुछ चिपकने लगा


    जब लगा तन्हा है जिंदगी का सफ़र
    मन बनने लगा जैसे रेत का घर
    एक एक करके करता रहा क़त्ल
    और फिर उन ख्वाहिशों को कफ़न से ढकने लगा ॥

    hamari aatmakatha likhi hai ????

    ReplyDelete
  7. कहने को साथ अपने एक दुनिया चलती है
    पर चुपके इस दिल में तनही पलती है!

    बस यादें ही साथ रहती हैं!


    शुभ भाव

    राम कृष्ण गौतम "राम"

    ReplyDelete
  8. anterdwand kee acchee prastuti ........
    utkrusht lekhan shailee ........

    ReplyDelete
  9. जब लगा तन्हा है जिंदगी का सफ़र
    मन बनने लगा जैसे रेत का घर
    एक एक करके करता रहा क़त्ल
    और फिर उन ख्वाहिशों को कफ़न से ढकने लगा
    BAHUT HI ......SUNDER PANKTIYA..

    ReplyDelete
  10. again one of your best... best with words,feelings..
    और हाँ इस बार "लय" भी अच्छी रही, मेरी शिकायत दूर हुई :)
    बहुत अच्छा... बहुत अच्छा... बहुत ही अच्छा... मजा आई... :) :) :)

    ReplyDelete
  11. कुछ पंक्तियाँ तो वाकई कमाल की लिखी पारुल...
    और जब याद आई फिर अपनी ही
    तो लबों पे वजूद सा कुछ चिपकने लगा ॥

    "ख़ामोशी आई थी लफ़्ज़ों की कतरन लिये" -- (क्या बात है :))

    "कि आईने में भी था भटकने लगा ॥" -- :)

    "और फिर उन ख्वाहिशों को कफ़न से ढकने लगा ॥"-- (अच्छा..)

    ReplyDelete
  12. बहुत अच्छी ...मनभावन पोस्ट.....

    One liner(s):

    Amazing
    Beautiful
    Marvellous
    Touchy

    ReplyDelete
  13. बहुत सुन्दर!
    रचनारूपी माला में आपने शब्दरूपी मोती
    करीने से पिरोये हैं!

    ReplyDelete
  14. Gehrai tere ehsaas ki aur bhi gehraye
    teri qalam yunhi chale aur gungunaye
    Lafz mil jayein teri khamoshi ko
    Aur ye silsila bas yunhi chalta jaye.

    Neelesh Mumbai
    http://yoursaarathi.blogspot.com/

    ReplyDelete
  15. जब लगा तन्हा है जिंदगी का सफ़र
    मन बनने लगा जैसे रेत का घर
    एक एक करके करता रहा क़त्ल
    और फिर उन ख्वाहिशों को कफ़न से ढकने लगा

    वाह पारुल!! बहुत खूब शब्द दिये हैं..आनन्द आ गया.

    ReplyDelete
  16. बहुत ही सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ आपने लाजवाब रचना लिखा है! बधाई!

    ReplyDelete
  17. मन की अभिव्यक्ति को बहुत खूबसूरत शब्द और भावों पे पिरोया आपने...बहुत बढ़िया..बधाई

    ReplyDelete
  18. वाह, बहुत ही लाजवाब भावाभिव्यक्ति, सुंदर कल्पना. शुभकामनाएं.

    रामराम.

    ReplyDelete
  19. "जब याद आई फिर अपनी ही
    तो लबों पे वजूद सा कुछ चिपकने लगा"
    "सोच की पराकाष्ठा" क्योंकि मेरे लिए तो ये अकल्पनीय है.

    ReplyDelete
  20. करता था जब कोई सवाल खुद से
    जवाब जैसे हो जाते थे बुत से
    जवाबों के इंतजार में प्रश्न हताश हो जाते हैं
    सुन्दर रचना

    ReplyDelete