तू जूझ रहा था जब अपनी ही उलझन से
मैं आ उलझा तुझ में खुद इस मन से
अश्क खुद-ब-खुद आँखों से उलझ रहे थे
धीरे धीरे उम्मीद के सब दीये बुझ रहे थे
गांठें कई पड़ गयी थी इस खीचतान में
उभर रहे थे जाने कितने झोल जबरन से !
ये गांठें कहीं न कहीं दोनों को चुभ रही थी
ख़ामोशी चुपचाप दर्द की पहेली बूझ रही थी
मैं झाड़ रहा था ख्वाबों को,शायद कुछ मिल जाये
पर दूर कर न पाया सिलवटें तेरी शिकन से !
उलझते जा रहे थे जैसे सोच के सब धागे
कुछ भी तो नहीं था कोरे ख्यालों से आगे
मैं साफ़ कर न पाया अपने अक्स पे पड़ी गर्द
और खामखा उलझता जा रहा था दर्पण से !
महसूस हो गया था ख्वाहिशें कहीं कमजोर थी
टूटी हुई मन से मन की डोर थी
सून रहा था मैं दिल के उस शोर को
जहाँ आह खुद उलझ रही थी चुभन से !
When emotions overflow... some rhythmic sound echo the mind... and an urge rises to give wings to my rhythm.. a poem is born, my rhythm of words...
good change picture is also nice along with your beautiful poem.
ReplyDeleteमन की गाँठ...
ReplyDeletereally nice work
ReplyDeleteदर्द से किनारा करके भी रचा जा सकता है!
ReplyDelete--
"सरस्वती माता का सबको वरदान मिले,
वासंती फूलों-सा सबका मन आज खिले!
खिलकर सब मुस्काएँ, सब सबके मन भाएँ!"
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क्यों हम सब पूजा करते हैं, सरस्वती माता की?
लगी झूमने खेतों में, कोहरे में भोर हुई!
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संपादक : सरस पायस
hardik aabhar!
ReplyDeleteवाह री उलझन
ReplyDeleteतू ऐसे ही उलझाएगी.....
सुंदर रचना....
पारुल जी
ReplyDeleteआपके उल्झन को पढ कर सच्मुच मै भी ऊलझ नो मै खो सी गई। धुन्ध फ़िल्म का एक गन याद आ रहा है।
ऊलझन सुल्झे ना रस्ता सुझे न॥प
000 जौंउ कहां मैं,जाउं कहां पर, रस्ते तो ।ढूद ने पर …॥मिल ही जाते हैं,इन्ही सुन्दर भावनओं के॥साथ।धन्यवाद
पूनम
dhanywaad!!
ReplyDeleteदरअसल, मन जब उलाझता है कहीं तो ख्याल-ओ-ख्वाब से यथार्थ तक चंद ही सवालात ही उसे खाए जातेहैं, चाहे वह सवाल महक एक के ही हो या किसी युगल के या फिर युगल दिल के……
ReplyDeleteशुभकामनाएं
Good one!!
ReplyDeletewell done!
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