कितना मुश्किल है इश्क़ की कहानी लिखना
जैसे पानी से,पानी पे,पानी लिखना!!
कोई मिर्ज़ा दिल का कोई फलक ढूंढें
और साहिबा उसको चाँद तलक ढूंढें
सुना है बहुत निक्कमी है
कमबख्त मिलती ही नहीं
ऐसी मोहब्बत को कैसे भला,रूहानी लिखना !!
सुना है रोज़ मुकर्रर ,दबे पाँव सी निकलती है
एक नदी कांच की, रात के बंजर में खलती है
चलो लफ़्ज़ों का पैबंद लगा दूं तुम पर
नज़्म की हिचकियों को दिल की मेहरबानी लिखना !!
खेल जाना अगर कोई फिर दिल से खेले
गम कोई गोल सा होकर,चाँद की जगह ले ले
सुबकियां हौले सरक जायें, सिसकियाँ यूँ ही न थक जाये
कतरे कतरे को उस नदी की नादानी लिखना !!
वो नदी साहिबा,सरे आम सी मचलती है
देख मिर्ज़ा तेरे खुलूस में ही पलती है
बड़ा ही शोर करती है जो मिलती है तुझसे
एक होकर ज़र्रे ज़र्रे की रवानी लिखना !!
लाजवाब !! बहुत खूब
ReplyDeleteवाह।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (15-09-2017) को
ReplyDelete"शब्द से ख़ामोशी तक" (चर्चा अंक 2728)
पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हिन्दी दिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
behad khoob
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteवाह ... अरसे बाद एक शब्दों का जादू मुहब्बत के नाम को जन्नत कर रहा है ... इश्क़ की हिलोरें आसमान छू गयीं ...
ReplyDeleteThanks to all of you...
ReplyDeleteBeautiful
ReplyDeleteVartika