लफ़्ज़ों ने दिल पे दस्तक दी
कि अरसे से कुछ लिखा नहीं
यूँ तो सोच रोज़ सुलगी
धुआं कहीं दिखा नहीं॥
मैं रोज़ ख्यालों के दर पर
जाकर भी लौट आता था
जाने वो अनजाना सा वजूद
देखकर भी मुझे क्यूँ चीखा नहीं ॥
गोल करता रह जाता था ख्वाब
चाँद के आकार में
इश्क की नासमझी में
दर्द भी बिका नहीं ॥
एक 'हद' तलाशने
फिरता रहा हूँ दर-ब-दर
आज ये मालूम हुआ कि
जिंदगी सा कुछ फीका नहीं ॥
एक 'हद' तलाशते
ReplyDeleteफिरता रहा हूँ दर-ब-दर
आज ये मालूम हुआ कि
जिंदगी से कुछ फीका नहीं.
:)
आपकी किसी पोस्ट की चर्चा है नयी पुरानी हलचल पर कल शनिवार ११-२-२०१२ को। कृपया पधारें और अपने अनमोल विचार ज़रूर दें।
ReplyDeleteभावपूर्ण रचना है
ReplyDeleteआशा
एक मरुथल सा हृदय में,
ReplyDeleteमृगतृष्णा है नाम तुम्हारा
शायद सही कहा।
ReplyDeleteआज ये मालूम हुआ कि
ReplyDeleteजिंदगी से कुछ फीका नहीं....बहुत-बहुत ही अच्छी भावपूर्ण रचनाये है......
इश्क की नासमझी में दर्द भी बिका नहीं...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर...
यह कैसा सन्नाटा है ? जीवन में तो हर पल रंग बदलते हैं ...
ReplyDeleteकल 13/02/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
ReplyDeleteधन्यवाद!
अंतर्द्वंद और ....
ReplyDeleteबहुत बढ़िया प्रस्तुति
ReplyDeleteshabd yu hi dastak dete rahe aur ye mahfil yu hi sajti tahe...sundar rachna...
ReplyDeleteWah, bahut khoob....
ReplyDeletehttp://www.poeticprakash.com/
बहुत बढि़या।
ReplyDeleteमेरी टिप्पणी कहां गयी ??????? स्पैम में देखिएगा ॥
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर भावाभिव्यक्ति है....
ReplyDeleteसबसे पहले तो खुशामदीद.....अरसा हो गया आपको पढ़े हुए....उम्दा नज़्म....लिखती रहिये पारुल जी आपको पढना अच्छा लगता है ।
ReplyDeleteभावभीनी अभिव्यक्ति है|बधाई इतना अच्छा लिखने के लिए|मेरे ब्लॉग पर भी आपका स्वागत है|
ReplyDeleteआपने बहुत दिन बाद ही सही लेकिन अच्छा लिखा है |वसीम बरेलवी का एक शेर है कि -अगर जिन्दा है तो ,जिन्दा नज़र आना जरूरी है |आप की कलम अब न रुके तो अच्छा होगा |आपका एक पाठक -
ReplyDeletebahut sundar
ReplyDeletejindagi bhale hi fiki ho...yahan to mithaas hi hai...!!
ReplyDelete...कि अरसे से कुछ लिखा नहीं...
ReplyDelete..कायल हूँ ....
बहुत ही बेहतरीन और प्रशंसनीय प्रस्तुति....
ReplyDeleteशुभकामनाएँ
एक काफी लंबे अर्से बाद आपकी पोस्ट पर आना हुआ..तब पता चला कि आप खुद कई दिनों से दरवाजे के बाहर ही बाहर चक्कर लगा रही हैं..यानि एक लंबी खामोशी...हैरानी है कि आपकी पोस्ट का सिलसिला थमा सा है बेहतरीन कविताओं की कोई पोस्ट धीमी हो जाए अच्छी बात नहीं...जल्दी से चालू हो जाएं..वैसे भी एक महीने से ज्यादा हो गया है.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर !
ReplyDeleteसुन्दर!
ReplyDeleteघुघूती बासूती
लफ्जों ने दिल पे दस्तक दी, कि अरसे से कुछ लिखा नहीं,
ReplyDeleteयूं तो सोच रोज सुलगी धुआं कहीं दिखा नहीं।
बहुत बेहतरीन, हर बार की तरह, लेकिन अफसोस लम्बे अर्से बाद लौटा हूं।
बहुत अच्छी कविता पारुल जी |
ReplyDeleteजिंदगी सा फीका कुछ भी नही ....सच है
ReplyDeleteपर, जिंदगी सा रुचिकर भी तो कुछ नही!
बहुत ही सुंदर
ReplyDeleteBeautiful :)
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteYes
ReplyDelete"यूँ तो सोच रोज़ सुलगी
ReplyDeleteधुआं कहीं दिखा नहीं"
Loved it....keep up the good work...
ReplyDeleteएक 'हद' तलाशने
फिरता रहा हूँ दर-ब-दर
आज ये मालूम हुआ कि
जिंदगी सा कुछ फीका नहीं
बहुत अच्छा लिखा है
पारुल जी !
ज़िंदगी से हम कई पहलुओं से साक्षात्कार करते हैं …
मैंने लिखा -
ज़िंदगी दर्द का फ़साना है !
हर घड़ी सांस को गंवाना है !
जीते रहना है , मरते जाना है !
ख़ुद को खोना है , ख़ुद को पाना है !
चांद-तारे सजा’ तसव्वुर में ,
तपते सहरा में चलते जाना है !
जलते शोलों के दरमियां जा’कर ,
बर्फ के टुकड़े ढूंढ़ लाना है !
अच्छी कविता के लिए पुनः बधाई !
शुभकामनाओं सहित…
पारुल जी
नमस्कार !
पोस्ट बदले हुए बहुत समय हो गया है …
आशा है सपरिवार स्वस्थ सानंद हैं
आपकी प्रतीक्षा है सारे हिंदी ब्लॉगजगत को …
:)
नई रचना के साथ यथाशीघ्र आइएगा …
शुभकामनाओं सहित…
राजेन्द्र स्वर्णकार