मैं भटकता था रोज ही जैसे अपने आप में
खुद से खुद तक तय किये फासलों की नाप में
वहीँ एक रोज मेरा साया मेरे साथ लग गया था
और जिंदगी सा कुछ मेरे हाथ लग गया था !
कुछ जल रहा था मुझ में
सूरज था या कि चाँद था
कोई भोर का टुकड़ा सा
या फिर सुनहरी सांझ था
यूँ लगा कि जैसे तन्हाई की तिल्ली से मैं ही सुलग गया था !
मुझको मेरे होने का एहसास जो दिन-रैन था
इतना तो पहले भी मैं खाली होकर भी न बेचैन था
अपने वजूद क गुमनाम से सवाल पर
हाथ जैसे कोई उलझा हुआ जवाब लग गया था !
हो गया था आइना खुद ,मेरी ही तस्वीर सा
चुभ रहा था जैसे 'मैं' खुद में ही एक तीर सा
कुछ रंग फैलने लगे थे फिर पानी पर
मुझको मालूम था दिल से फिर कोई ख्वाब लग गया था !
खुद से खुद तक तय किये फासलों की नाप में
वहीँ एक रोज मेरा साया मेरे साथ लग गया था
और जिंदगी सा कुछ मेरे हाथ लग गया था !
कुछ जल रहा था मुझ में
सूरज था या कि चाँद था
कोई भोर का टुकड़ा सा
या फिर सुनहरी सांझ था
यूँ लगा कि जैसे तन्हाई की तिल्ली से मैं ही सुलग गया था !
मुझको मेरे होने का एहसास जो दिन-रैन था
इतना तो पहले भी मैं खाली होकर भी न बेचैन था
अपने वजूद क गुमनाम से सवाल पर
हाथ जैसे कोई उलझा हुआ जवाब लग गया था !
हो गया था आइना खुद ,मेरी ही तस्वीर सा
चुभ रहा था जैसे 'मैं' खुद में ही एक तीर सा
कुछ रंग फैलने लगे थे फिर पानी पर
मुझको मालूम था दिल से फिर कोई ख्वाब लग गया था !
bahut sochne par mazboor karti sunder post.
ReplyDeleteदर्पण बहुधा यह बोध करा देता है।
ReplyDelete"हो गया था आइना खुद, मेरी ही तस्वीर सा
ReplyDeleteचुभ रहा था जैसे 'मैं' खुद में ही एक तीर सा"
Waah !!
ReplyDeleteBahut sunder kavita , bahut shubhkaamnayen.
गहन वैचारिक सोच -विचार से निकली एक उत्कृष्ट कविता पारुल जी बहुत -बहुत बधाई और शुभकामनाएं
ReplyDeleteगहन वैचारिक सोच -विचार से निकली एक उत्कृष्ट कविता पारुल जी बहुत -बहुत बधाई और शुभकामनाएं
ReplyDeleteये ख्वाब भी न ... अच्छी अभिव्यक्ति
ReplyDeleteBahut achha Parul... Bahut hi achhaa...
ReplyDeleteचुभ रहा था जैसे 'मैं' खुद में ही एक तीर सा
ReplyDeleteकुछ रंग फैलने लगे थे फिर पानी पर
मुझको मालूम था दिल से फिर कोई ख्वाब लग गया था............बहुत ही सुन्दर...हम सभी के जीवन में ऐसे क्षण आते हैं ..जब खुद से खुद की नजदीकी भी अखरने लगती है.
बेहतरीन।
ReplyDelete------
स्वतन्त्रता दिवस की शुभ कामनाएँ।
कल 17/08/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
चुभ रहा था जैसे 'मैं' खुद में ही एक तीर सा
ReplyDeleteकुछ रंग फैलने लगे थे फिर पानी पर
मुझको मालूम था दिल से फिर कोई ख्वाब लग गया था.....
यह ख्वाब का ही असर है कि खुद को नए नजरिये से देखने लगता है इंसान
bahut sundar.....ati uttam
ReplyDeleteवाह ...बहुत खूब कहा है ।
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत.......खुद में खुद की तलाश.......लाजवाब|
ReplyDeleteकुछ जल रहा था मुझ में
ReplyDeleteसूरज था या कि चाँद था
कोई भोर का टुकड़ा सा
या फिर सुनहरी सांझ था
बहुत गहन रचना जो बहुत कुछ कह रही है |
सुन्दर रचना |
पारुल जी आपकी कवितों को पड़ना एक अलग ही अहशास है...लगता है जैसे कभी जिंदगी का कोई भुला लम्हा मिल गया हो...कैसे लिखती है आप इतना..मैं हमेशा ही सोचता रहता हूँ पड़ने के बाद....पर जवाब हमेशा ही नदारद मिलता है....
ReplyDeleteकल-शनिवार 20 अगस्त 2011 को आपकी किसी पोस्ट की चर्चा नयी-पुरानी हलचल पर है |कृपया अवश्य पधारें.आभार.
ReplyDelete"हो गया था आइना खुद, मेरी ही तस्वीर सा
ReplyDeleteचुभ रहा था जैसे 'मैं' खुद में ही एक तीर सा"
वाह!!!.......बार बार पढने को दिल करता है....धन्यवाद:)
बहुत गहरे जज्बात ... ये ख्वाब कभी कभी अंदर तक चुभते हैं तीर से ... बेहतरीन रचना ..
ReplyDeleteआप ने कई दिनों से लिखना कम कर रक्खा है ... आशा है सब कुशल मंगल होगा ...
कुछ जल रहा था मुझ में
ReplyDeleteसूरज था या कि चाँद था
कोई भोर का टुकड़ा सा
या फिर सुनहरी सांझ था
पारुल जी,सुन्दर भावपूर्ण प्रस्तुति है आपकी.
हर शब्द प्रभावशाली है.
बहुत बहुत आभार.
मेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है.
khaw to khaw hain....inmen kashish bhi hai...khalish bhi...jeene ka ehsaas bhi....
ReplyDeleteआदरणीया पारुल जी
ReplyDeleteसादर सस्नेहाभिवादन !
मासूम जज़्बातों की गहरे अल्फ़ाज़ों में तर्ज़ुमानी … … …
कुछ रंग फैलने लगे थे फिर पानी पर
मुझको मालूम था दिल से फिर कोई ख्वाब लग गया था !
आपकी नज़्म से जो मिला वह बयान करने की नहीं , महसूस करने की चीज़ है …
मुबारकबाद के साथ शुक्रिया !
विलंब से ही सही…
♥ स्वतंत्रतादिवस सहित श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की भी हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !♥
- राजेन्द्र स्वर्णकार
बहुत सुन्दर और लाजवाब रचना लिखा है आपने !बधाई!
ReplyDeleteमेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
http://seawave-babli.blogspot.com/
http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com/
बहुत गहरी रचना....
ReplyDeleteआजकल हो कहाँ???
बहुत कुछ कह गयी आपकी ये नज़्म .. शब्दों के अपने भाव होते है ..
ReplyDeleteबधाई !!
आभार
विजय
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कृपया मेरी नयी कविता " फूल, चाय और बारिश " को पढकर अपनी बहुमूल्य राय दिजियेंगा . लिंक है : http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/07/blog-post_22.html
सुंदर और मनमोहक रचना है
ReplyDeletewaah...
ReplyDeletegujarish hai.....likhte rahiye!
ReplyDeletegahan vicharon ko aapne sundar abhivyakti di hai
ReplyDeletelajabab.. ye mari jindgi se kuch milta julta hai...aap ka bahut -bahut shukriya....
ReplyDeletelajabab.. ye mari jindgi se kuch milta julta hai...aap ka bahut -bahut shukriya....
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