मैं!
न जाने कहाँ खुद को रखकर भूलाऔर ढूंढता रहा फिर,
जिंदगी के अज़ाबों में !
याद करता रहा खुद को रातों में जगकरनहीं पाया न जाने क्यों खुद को ख़्वाबों में ?
यूँ मुस्तकिल हो चलादिल बुस्दिल हो चलाकुछ अपने ही सवालों के जवाबों में !!
कुछ पन्ने थे फट गएकुछ किस्सों में बंट गएनहीं मिला मैं खुद को वक़्त की किताबों में !!
मुझे खुद के होने कीजब कोई वजह न मिलीमैं खो गया अजनबी से असाबों में !!
और हो गया धीरे धीरेअपना ही गुनेहगारउलझता गया सोच के हिसाबों में !!
अजाब-
सजामुस्तकिल-
स्थिरअसाब-
कारण
यादों की जरूरत, फकत शायरी में ,
ReplyDeleteजँचता नहीं पानी ज्यादा,
आँखों में, आबों में,
बदिया बन गयी शायरी,
हुई बात ख़तम,
वापस लौट आइये अब,
महको गुलाबों में ...
खुश रहिए , और लिखते रहिए तबीयत से ...
wah... bahut khoob...
ReplyDeletekhud mein khud ko pana hi to mushkil hai...kahan se udhadh gayi aap ..gud one!
ReplyDeletesimply beautiful!
ReplyDeleteVery nice post ..Parul ji.
ReplyDeleteमुझे खुद के होने की
ReplyDeleteजब कोई वजह न मिली
मैं खो गया अजनबी से असाबों में !!
खुद को ढूढ पाना वाकई मुश्किल है.
बेहतरीन रचना
क्या बाद है..खुद के होने की कोई वजह न मिली...बहुत शानदार!!
ReplyDeleteन जाने कहाँ खुद को रखकर भूला
ReplyDeleteऔर ढूंढता रहा फिर,जिंदगी के अज़ाबों में !
याद करता रहा खुद को रातों में जगकर
नहीं पाया न जाने क्यों खुद को ख़्वाबों में ?
बहुत सुंदर ,
शब्द अपने आप मैं बहुत कुछ कह गए हैं ,
भावनाओं का सम्प्रेषण सुंदर तरीके से हुआ है .
मेरे ब्लॉग पर आने के लिए धन्यवाद .
behtreen kavita/
ReplyDeletekashmakash dikahti hui jindgi ki
बहुत खूब .....!!
ReplyDeleteये बुस्दिल का भी अर्थ बता देतीं ......
bahut pyaari kavita...
ReplyDeleteअरे, मेरा कमेंट कहाँ गुम गया??
ReplyDeleteऐसी कशमकश के साथ अक्सर सामना होता रहता है ....तुम्हारी पोस्ट से कुछ शब्द ही सीखने को मिले . meaning batana ka shukriya!
ReplyDeleteमैं तो सचमुच खो गया.
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर रचना
मनोज खत्री
खुद को ढूढ़ने निकला सर्वप्रथम गुनाहों से बाहर निकल आता है।
ReplyDeleteशानदार। बहुत ही सुंदर।।
ReplyDeleteउर्दू जुबान में भी बहुत उम्दा लिख लेती हैं आप.
ReplyDeleteप्रभावशाली प्रस्तुति.
मैं यह नहीं कहूंगा कि बहुत अच्छा लिखा है। मैं यह कहूंगा कि इस बार आपने कम शब्दों में ही बहुत कुछ कह दिया है। यह बधाई की बात है और उसे स्वीकार कीजिए।
ReplyDeleteमैं यह नहीं कहूंगा कि बहुत अच्छा लिखा है। मैं यह कहूंगा कि इस बार आपने कम शब्दों में ही बहुत कुछ कह दिया है। यह बधाई की बात है और उसे स्वीकार कीजिए।
ReplyDeletebeautiful words parul....
ReplyDeleteजीवन दर्शन में झांकते भाव --बहुत ही सुंदर
ReplyDeleteछंदमुक्त कविता में बात कहने का आपका ढंग निराला है.
ReplyDeleteकुँवर कुसुमेश
मेरा ब्लॉग:kunwarkusumesh.blogspot.com भी कृपया देखिएगा
... बेहतरीन !!!
ReplyDeleteन जाने कहाँ खुद को रखकर भूला
ReplyDeleteऔर ढूंढता रहा फिर,जिंदगी के अज़ाबों में !
याद करता रहा खुद को रातों में जगकर
नहीं पाया न जाने क्यों खुद को ख़्वाबों में ?
bahut hi sundar likha
khaskar ye char panktiya
पारुल जी,
ReplyDeleteहमेशा की तरह लाजवाब.......इस बार आपकी रचना काफी ऊँची उठती है.....खुद में खुद को खोजना.....यही सबसे बड़ी मुक्ति है...... बहुत खूब.....ये पंक्तिया बहुत पसंद आयीं......
"न जाने कहाँ खुद को रखकर भूला
और ढूंढता रहा फिर,जिंदगी के अज़ाबों में !
याद करता रहा खुद को रातों में जगकर
नहीं पाया न जाने क्यों खुद को ख़्वाबों में ?"
"बुस्दिल"..........ये शब्द शायद गलत टाइप हो गया होगा......सही कर लीजियेगा.......इस शानदार रचना पर मेरी शुभकामनाये.......ऐसे ही लिखती रहिये |
beautiful parul ji ... khud ko dhood pana to khuda ko doodhne se bhi zada mushkil hai ....
ReplyDeleteछंदमुक्त कविताओं में बात कहने का आपका ढंग निराला है.
ReplyDeleteकुँवर कुसुमेश
ब्लॉग:kunwarkusumesh.blogspot.com
kya kahun ! bahut hi pyari kavita hai.. lafz nahi hai taarif k liye.....
ReplyDeleteMere blog par bhi sawaagat hai aapka.....
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nicely written poem..
ReplyDeleteकुछ पन्ने थे फट गए ,
ReplyDeleteकुछ किस्सों में बट गए
नहीं मिला मैन्खुद को ,वक्त कि किताबों में .
एक अर्थपूर्ण चित्र के साथ एक सुंदर रचना हेतु आभार.............
maafi chahungi..harkeet ji..imraan ji..aap sahi hai maine 'busdil' type kiya hai jab ki 'buzdil' hona chahiye..jiska arth hai 'kayar'
ReplyDeleteshukriya!
khud mein khud ka na hona..kitni ajib feeling hain!
ReplyDeletevartika!
what a thought!
ReplyDeletekeep going!!
मुझे खुद के होने की
ReplyDeleteजब कोई वजह न मिली
मैं खो गया अजनबी से असाबों में !!
खुद को ढूढ पाना वाकई मुश्किल है.
बहुत ही सुन्दर एवं भावमय प्रस्तुति ।
bahut hi behatreen avam bhav-pravan abhvyakti.मुझे खुद के होने की
ReplyDeleteजब कोई वजह न मिली
मैं खो गया अजनबी से असाबों में !!
और हो गया धीरे धीरे
अपना ही गुनेहगार
उलझता गया सोच के हिसाबों में !!
man ki gaharai me utr gai kavita.
poonam
Kafi Uljhan thi...Par uljhano se ..
ReplyDeleteकुछ पन्ने थे फट गए
ReplyDeleteकुछ किस्सों में बंट गए
नहीं मिला मैं खुद को वक़्त की किताबों में !!
और हो गया धीरे धीरे
अपना ही गुनेहगार
उलझता गया सोच के हिसाबों में !!
आपकी कविता पढ़कर अपने एक शायर दोस्त की यह ग़ज़ल कयों याद आ रही है, नहीं जानता
कभी बेवजह मुस्कुराकर तो देखो
रकीबों को घर में बुलाकर देखो
हरी रेशमी सांस की सरजमीं में
मुहब्बत के बूटे लगाकर तो देखो
हमीं हैं हमीं हैं हमीं हम हमेशा
किताबों से गर्दे हटाकर देखो
तुनकती हुई हर खुशी को खुशी से
ज़रा खींचकर गुदगुदाकर तो देखों
बनेगी नयी लय सजेगा नया सुर
जाहिद की धुन गुनगुनाकर तो देखों
20.10.2010
bahut hi sadhuvad shubhkamnayen very nice
ReplyDeletebahut hi sunder abhivyakti. dil ko chu gayi.
ReplyDeleteअपने "होने" और "न होने" के गोधूलि क्षेत्र के धुंधलके में डूबते उतराते मन की पीड़ा की बेहद मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति. आभार.
ReplyDeleteसादर
डोरोथी.
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति.............मन को छू गई............
ReplyDeleteबहुत प्रभावशाली और खूबसूरती से लिखी नज़्म !
ReplyDeleteबहुत बधाई !
मन जिंदगी के पन्नों में खुद को खो चुका लफ्ज़ है, जिसे जिंदगी तोड़ मोड़ कर जाने कितने टुकड़ों में बाँट कर अर्थहीन बना देती है. और मन अपनी तलाश में, उन टुकड़ों को जोड़ने की जुगत में भटकता है उम्र भर, उसी वेदना के साथ, जो आपकी इस कविता में अभिव्यक्त हुआ है.
ReplyDeleteअस्तित्व के दर्द की अर्थपूर्ण अभिव्यक्ति.
bahut khub!!
ReplyDeletedil ko chhute bhaw......!!
just passed a year ,........feeling nostalgic .
ReplyDeleteपारुलजी, दरअसल जब 'मैं' भूल जाता है तो..वो मस्त कलंदर बन जाता है किंतु जब वो 'मैं' को ढूंढने लगता है तो आदमी की शक़्ल लेने लगता है..नतीजतन उसे स्थिर, कायर हो ही जाना है..। रचना बेमिसाल है, मैं तो बस कुछ ऐसा दिमाग वाला हूं जो रचना के शब्दों में हर तरह के रस लेना चाहता हूं..सो अपनी ही सोच के उटपटांग से अर्थ...व्यक्त कर दिया करता हूं। जैसे कुछ अपने ही सवालों के जवाबों में..।॥ और उलझता गया सोच के हिसाबों में..।
ReplyDeleteआज आपकी रचना थोड़ी सी अलग लगी....कुछ ग़ज़ल जैसी....सुंदर अभिव्यक्ति.....शुभकामनाएँ
ReplyDeleteअपना ही गुनाहगार उलझता गया सोच के हिसाबों में... बेहतरीन। सबसे अच्छी बात कि आपने कुछ शब्दों के अर्थों पर भी प्रकाश डाल कर हम जैसे पाठकों पर कृपा की है। इसके लिए धन्यवाद।
ReplyDeleteपहली बार आपके ब्लॉग पर आने का मौका मिला। अब रोज आएंगे- आज से ही आपको फॉलो किया। आपने साबित किया है- यू आर द बेस्ट...
कई बार तो इंसान ढूंढता ही रहता है अपने आप को और वो कभी नही मिलता .... गहरे जज़्बातों को बाखूबी नज़्म में उतारा है आपने ....
ReplyDeletebahut badiya..........keep it up
ReplyDeletejaisa naam vaisa kaam.
ReplyDeletebadhaai ho .
Bahut hi badhiya :)
ReplyDeleteBeautful composition..
ReplyDeleteAAP KA LEKHAN AUR SOCH KE BARE ME JYADA BAATE NAHI KARUNGA...KEVAL EK BAAT KAHUNGA..BAHTREEN....
ReplyDeleteख़ुद के भीतर ख़ुद को तलाशने की ज़द्दोज़हद का शुरू होना असली मंजिल की तरफ उड़ान का आगाज़ है ..एक दार्शनिक रचना के लिए धन्यवाद ! ..आते-जाते कभी-कभी देखा करता था आपको ....आज रू-ब-रू होने का मौक़ा मिला ....
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