Tuesday, January 5, 2010

फिर..


यूँ जोर से न अपनी आँखों को मल
पलकों के धागे उलझने को है
मन की ख़ामोशी को चुपचाप सुन
आँखों के मोती कहीं बजने को है ।
फिर रात को यूँ ही हो जाने दे
ख्वाबों को ऐसे ही सो जाने दे
पगलाई सी कोई उम्मीद
फिर जिंदगी,खुरचने को है ।
भूला सा गर कोई तारा मिले
कोरा सा फलक सारा मिले
समझ लेना टांकने को कुछ भी नहीं
चाँद खो गया,बस शोर मचने को है ।
साँसें बंट रही किश्तों में है
गांठे कई टूटे रिश्तों में है
दम तोडती निभाने की आस
मजबूर होकर तन्हाई की राह तकने को है ।

9 comments:

  1. साँसें बंट रही किश्तों में है
    गांठे कई टूटे रिश्तों में है
    दम तोडती निभाने की आस
    मजबूर होकर तन्हाई की राह तकने को है,

    बेहतरीन सटीक रचना . बधाई.

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  2. भावमय रचना पढ़कर अच्छा लगा.

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  3. बहुत सुऩ्दर!
    उत्कर्षों के उच्च शिखर पर चढ़ते जाओ।
    पथ आलोकित है, आगे को बढ़ते जाओ।।

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  4. बहुत सुऩ्दर!
    घुघूती बासूती

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  5. बेहतरीन सुन्दर अभिव्यक्ति!!

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  6. Shabdon ko piro ke, ek kavita kehne ko hai

    :)

    You are amazing!!

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  7. Tum kahin dur ho,
    par man ko ek aas hai
    soch kahin kuch atki si hai
    par jo na kho paye kabhi,
    kuch yaad aisi sath hai.
    yun na aankhe mund kar,
    khamosh hokar baith ja...
    pal pal khiskti jindgi
    kuch aur dur ane ko hai......

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  8. ??? quite confused .. its optimism or pessimism ???
    starts with optimism & suddenly tern to pessimism ... or its a wrong way to read a sensible poem...which reflects some deep emotions of abstract nature of life, devoid of senseless surface reasoning ..
    ..... :-)

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  9. saari hi rachnaayien bahut sunder hain...
    Jo aapki style hai bahut hi unique aur achhi hai...
    -Ojasi

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