Friday, June 26, 2009

बिन पानी सब सून!


जिंदगी यूं भी न जाने कब से नम है
फिर भी बरसों से प्यासा सा अब तक मेरा गम है
मेरे आंसूं ही गर न काम आ सके मेरे
तो सोचता हूँ बस यही,कहाँ ये जिंदगी खत्म है ?
जल रहा हूँ ख़ुद में,सोच की ये कैसी तपिश है ?
मर रहा हूँ ख़ुद में,मन में ये कैसी खलिश है?
सुना है सूख रहे है कहीं वक्त के दरख्त
और एक मेरा ही समन्दर होता नही कम है।
एक ये फलक,जिसकी नीली चादर है खाली
प्यासी,बंजर सी धराको जिसने बनाया है सवाली
क्यों जिंदगी से कुछ आसूं चुरा नही लेता ?
और क्यों नही बन जाता वक्त का मरहम है?
किसी के आंसूं,रिमझिम बूँदें बन जाए गर
कितनों की प्यास बुझा दे,ये आस की लहर
मेरा गम भी प्यासा न रह जाए तब शायद
ये देखकर कि आज तो खुशी का मौसम है।

15 comments:

  1. अद़भुत, अविस्‍मरणीय रचना। सामयिक और भाव प्रधान रचना के लिए बधाई

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  2. बहुत बढिया रचना है।बधाई स्वीकारें।

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  3. Nice Poem..

    Not only Rhythm of Words

    but also Rhythem of feelings..

    Thanks!!!!

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  4. सुन्‍दर अभिव्‍य‍िक्ति ।

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  5. bhini-bhini kavita
    bhige-bhige bhav
    ____________madhurya hi madhrya
    badhai !

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  6. Let me feel the emotions...........

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  7. bahut sundar... bahut sundar....

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  8. दिल को छूने वाली पोस्ट

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  9. किसी के आंसूं,रिमझिम बूँदें बन जाए गर
    कितनों की प्यास बुझा दे,ये आस की लहर
    मेरा गम भी प्यासा न रह जाए तब शायद
    ये देखकर कि आज तो खुशी का मौसम है।
    वाह ---लजवाब पन्क्तियां ।
    पूनम

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