Tuesday, February 10, 2009

जिंदगी और मैं


मैं किसी सोच में उलझी थी
या किसी भंवर में थी
दूर बहुत दूर तक, तन्हा सी
अपनी नज़र में थी ॥
होकर रह जाती थी चुप
अपनी ही कही किसी बात पर
लफ्जों से ज्यादा यकीं था मुझको
खामोशी के साथ पर
ये नजदीकियां थी ख़ुद से
या कि दूसरो से थे फासले
या जिंदगी से दूर हो जाने के
मैं डर में थी ॥
ये मेरे मन में कौन था
जो इतना मौन था
जिसकी हस्ती के आगे
मेरा वजूद गौण था
ये इंतज़ार था जैसे
कि वो आकर मुझसे मिले
या कि मैं ख़ुद के खो जाने के
असर में थी ॥
कर नही पाई शिकवा कभी
ख़ुद किसी से
और मांगती रही जिसका हिसाब
अपनी ही जिंदगी से
कौन किस से था परेशान
जानकर होती हू अब हैरान
मैं जिंदगी की और जिंदगी मेरी
ख़बर में थी ॥

5 comments:

  1. बढ़िया है....स्थिति नहीं.. रचना

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  2. बहुत बढ़िया रचना . बधाई .

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  3. बहुत सुंदर रचना लिखी है क्या बात है ..............

    अनिल कान्त
    मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

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  4. लफ्जों से ज्यादा यकीं था मुझको
    खामोशी के साथ पर
    .........
    bahut hi achha laga

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