Monday, February 9, 2009

पहेली!


कभी करते थे ख़ुद से गिला
और कभी जिंदगी से शिकवा करते थे
न जाने कैसे हम जिंदगी से अलग
बस ख़ुद को ही जीया करते थे ..
रहते थे अपने आप में
फासलों की नाप में
और बस कब तक ऐसे ही
बहुत सोचा करते थे ..
जो होठों पे आने से डरती थी
जो दबी दबी सी आह भरती थी
उस खुशी से भी हम
झगड़ लिया करते थे ..
हम दर्द का रंग जानते थे
और ख़ुद को भी पहचानते थे
पर न जाने क्यों खालीपन को
कोरा ही समझा करते थे ..
हाँ!बात लगी बड़ी अजीब थी
जीने की भी कोई तरकीब थी
जिसको पहेली समझ हम
छोड़ दिया करते थे..
जाने क्या क्या चुनते थे
हम यूं ही तो नही ख्वाब बुनते थे
कभी छुपकर मन की ओट से
हम इन्हे छू भी लिया करते थे..
फिर ऐसे क्यूँ प्यास बढ़ी
कुछ बूंदों की आस बढ़ी
जाने वो कैसा मौसम था
जब हम भीगा करते थे॥
तब तक तो रंग सलोने थे
कैसे हुए हम मन से बोने थे
बचपन की दहलीज़ तक तो
न जाने क्या क्या बूझा करते थे..

11 comments:

  1. parul ji apki kavita aapki umar se bhi badi hai bahut hi khubsurat bhavavyakti hai bbadhai

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  2. जाने वो कैसा मौसम था
    जब हम भीगा करते थे॥
    बहुत सुंदर!!!!

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  3. उलझन और पहेली के संग, घुट-घुट मरते रहना।
    बचपन ही क्या, जीवन-भर इसको हल करते रहना।।

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  4. "हम यूं ही तो नही ख्वाब बुनते थे
    कभी छुपकर मन की ओट से
    हम इन्हे छू भी लिया करते थे.."

    भावप्रवण रचना है.

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  5. मेरी आई-डी से ‘बदनाम’ की टिप्पणी आप तक पँहुचे-
    खुद से गिला, जिन्दगी से शिकवा, क्या खौफ था? किसका डर था??
    ये बुज-दिली की निशानी है।
    गुरूसहाय भटनागर ‘‘बदनाम’’

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  6. sunder lagi ye rachna

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  7. खूब लिखा है । जगजीत जी की ग़ज़ल याद आ गई " ये दौलत भी ले लो ये.................... " बढ़िया, मुबारक खुदा कामयाबी दे ।

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  8. बेहद सुंदर कविता

    निर्मला कपिला जी ने बहुत ही अच्‍छी बात कही है

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