Wednesday, January 8, 2014

तरकीब!!



मैं  जिंदगी की कोई तरकीब लिए था
था कुछ तो ऐसा, जो मैं अजीब लिए था !
एक शहर कुछ गोल सा
बस गया था मुझ में
या कि इश्क़ में मैं
चाँद को रकीब लिए था ! 
समंदर अब भी था
धूप की मुँडेर पर
और मैं खुद को
खुद के करीब लिए था !
कुछ आयतें लिख आया था
उसके दरीचे पर
नींद में भी जैसे
वही तहज़ीब लिए था !
मैं बीत जाऊँ या कि तुम गुज़र जाओ
दिल में न ऐसी कोई
चीज़ लिया था !
कुछ मज़हबी मौसम
फाख्ता से होने लगे जब
दामन में एक बस तेरी
तस्वीर लिए था !!
  

16 comments:

विभूति" said...

भावो का सुन्दर समायोजन......

दिलबागसिंह विर्क said...

आपकी प्रस्तुति गुरुवार को चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है |
आभार

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बृहस्पतिवार (09-01-2014) को चर्चा-1487 में "मयंक का कोना" पर भी है!
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

प्रवीण पाण्डेय said...

सबकी अपनी एक कहानी,
कोई अनोखी बात सुनानी।

ओंकारनाथ मिश्र said...

एक आकृति की तरह उभर आयी यह रचना मानसपटल पर. अति सुन्दर.

Majaal said...

आपके लेखन में संजीदगी आती जा रही है :)

लिखते रहिये।

Kailash Sharma said...

वाह! बहुत खूबसूरत और प्रभावी रचना...

wordy said...


subhanallah!!

wordy said...


subhanallah!!

Anonymous said...



jindagi ki lazzat hai..yahin-kahin!!

Parul kanani said...

aap sabhi ka aabhar :)

कौशल लाल said...

बहुत सुन्दर......

Rahul... said...

...और जिंदगी की तबीयत को बेतरतीब लिए था...

Onkar said...

बहुत खूब

Aditya Tikku said...

atiutam_***

इमरान अंसारी said...

सुभानाल्लाह सुभानाल्लाह वाह |